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रसार्णवसुधाकरः.
तत् कोदण्डरहस्यमद्य भगवन् द्रष्टैष रामः स ते
हेलाज्जृम्भितजृम्भकेण धनुषा क्षत्रं च नालं वयम् ।।518।।
जामदग्न्यः- साधु रे क्षत्रियडिम्भ साधु' इत्यन्तेन भार्गवराघवयोरुक्तिप्रत्युक्तिकथनात् प्रगमनम्।
'राम- सबको दुःखी करने वाली ये रोषभरी वाणियाँ क्यों? आप सर्वत्यागी, वृद्ध, ब्रह्मा से सातवें तथा शङ्कर के शिष्य हैं। अतः राम आपके प्रति नत है तो फिर भङ्ककर भृकुटि क्यों बना रहे हैं। वीरव्रत- विघ को ढोने वाला मैं यदि गुरु दुःखी न हो तो सहन नहीं कर सकता।(4.71)11517 ।।
जामदग्न्य - तो फिर। राम- (खेदपूर्वक)
भगवान् शंकर जिसके गुरु रहे, जिसके सहपाठी चिरकाल तक कार्तिकेय थे, जो पृथ्वी को अपने वीरोचित आचरण के गुणगान से भर दिया, उस धनुर्वेद की शिक्षा को यह राम आज उपेक्षापूर्वक जृम्भकास्त्रों को प्रकट करने वाले धनुष से देखेगा, क्षात्रतेज का आश्रय नहीं लूँगा।(4.72) ।।518।।
जामदग्न्य- 'साधु रे क्षत्रिय बालक! -साधु" तक परशुराम और राघव का उत्तर प्रत्युत्तर- युक्त कथन होने से प्रगमन है।
अथ विरोधः - ___ यत्र व्यसनमायाति निरोधः स निगद्यते ।।४६।। विरोध- जहाँ (हित में) रुकावट पड़ जाती है, वह विरोध कहलाता है।।४६उ.।। यथा तत्रैव (बालरामायणे)जामदग्न्यः -
पक्वकर्पूरनिष्पेषमयं निरपिषत् त्रयम् ।
मम व्रीडां च चण्डीशचापं च स्वं च जीवितम् ।(4.65)।।519 ।। जनक:- कथं संन्यस्तशस्त्रस्यापि पुनरस्त्रग्रहणक्षणो वर्तते। इत्युपक्रम्य (४.६७)'प्रणमति जनकस्त्वां देवि दिव्यास्त्रविद्ये मम धनुषि पुराणे सन्निकर्ष कुरुष्व । परिभवति मदग्रे . भार्गवो रामभद्रं प्रहिणु तदिह बाणान् वार्द्धकं मां दुनोति ।। 520।।