________________
तृतीयो विलासः
[३२९]
निवारितोऽपि तदिदममिधाय प्रस्थित:
मया मूर्ध्नि प्रह्वे पितुरिति धृतं शासनमिदं स यक्षो रक्षो वा भवतु भगवान् वा रघुपतिः । निवर्तिष्ये सोऽहं भरतकृतरक्षां रघुपुरी समाः सम्यङ्नीत्वा वनभुवि चतस्रश्च दश च ।।(6/11) ||530।।
इत्यन्तेन रामप्रवासविषयस्य मायामयदुःखस्य सत्यस्यैव व्यक्तत्वाद् वा मायामयादेः कपटत्वज्ञानेऽपि रामचन्द्रेण सत्यतयाङ्गीकाराद् वा मार्गः।
जैसे वहीं (बालरामायण के) निदोषदशरथ नामक षष्ठ अङ्क में
"मायामय- हे आर्य! शत्रु का श्रेष्ठ पुरुषों के योग्य चरित्र कितना हृदयकारी होता है। देखिये
एक तो राक्षस जाति ही क्रूर है उसमें भी कार्याधीनतावश उसका मुझमें प्रकर्ष है पर पिता की आज्ञा से प्रवास कर रहे राम ने मुझे भी आंसुओं का रस बना दिया।।"(6.9)।।529 ।।
यहाँ से लेकर
"मायामय- तदनन्तर वामदेव आदि के द्वारा यथावत् बात को बता कर पैर पकड़ कर रोके जाने पर भी वह यह कह कहकर (अपने निश्चय पर) अडिग रहा
___ मैंने शिर नवाकर पिता का यह है, यह समझकर यह आज्ञा ग्रहण की है। चाहे वह यक्ष हो, या राक्षस या भगवान् या रघुपति दशरथ। भरत के द्वारा अपनी रक्षितपुरी में वह मैं वन में चौदह वर्ष सम्यक् बिताकर कर लौटूंगा।।(6.11)530।।'
यहाँ तक रामप्रवास- विषयक सत्य मायामय-दुःख के व्यक्त होने से अथवा मायामय इत्यादि के कपट को जानने पर भी रामचन्द्र द्वारा उसे सत्यतापूर्वक स्वीकार करने के कारण मार्ग है। अथ रूपम्
रूपं सन्देहकृद्वचः ॥५२।। (3) रूप- सन्देहपूर्ण कथन रूप कहलाता है।।५२उ.।। तथा तत्रैव (बालरामायण) षष्ठाङ्के
"कैकेयी- (सोद्वेगम्) पणमामि भअवदिं सरऊ जा पुव्वं दीसमाणा णयणपीऊसगण्डूसकबलं करेंति असि। सा संपदं हालाहलकबडपडिरूबा पडिहाअदि। किं पुण मे अओज्झादसणे वि अकारणपज्जाउलं हिअअंता जदि बच्छाणं रामभहरदलक्खणसत्तुग्धाणं वधूणं च सीदामण्डवीउम्मीलासुदकित्तीणं दंसणेण विव्वासहस्सदि। (प्रणमामि भगवतीं सरयूं, या पूर्व दृश्यमाना नयनपीयूषगण्डूषकबलं कुर्वती आसीत्। सा साम्प्रतं हालाहलकबलप्रतिरूपा प्रतिभाति। किं पुनमें अयोध्यादर्शनऽपि अकारणपर्याकुलं