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तृतीयो विलासः
हुआ रत्नशिखण्ड प्रवेश करता है) रत्नशिखण्ड- महाराज दशरथ की जय होवे । दशरथ प्रियमित्र जटायु सकुशल तो है? रत्नशिखण्ड- प्रियमित्र (आप) का उपकार करने से उनका कुशल है किन्तु शरीर से कुशल नहीं हैं। दशरथ- हे भद्र! बैठ कर कहो। मैं व्याकुल हूँ" यहाँ से लेकर "कौशल्या- हा भाग्य ! तुमने सम्पूर्ण राघव कुटुम्ब को दुर्दशाग्रस्त कर दिया । सुमित्रा - केवल वनगामी को ही नही प्रत्युत घर में रहने वाले मात्र को भी” (६ / ७१ पद्म से बाद) तक माताओं के भय का कथन होने से उद्वेग है।
अथ सम्भ्रमः
यथा तत्रैव (बालरामायणे) -
शत्रुव्याघ्रादिसम्भूतौ शङ्कात्रासौ च सम्भ्रमः ।। ५६ ।।
(11) सम्भ्रम- शत्रु और व्याघ्र इत्यादि से उत्पन्न शङ्का और भय सम्भ्रम कहलाता है ।। ५६उ. ।
“वामदेवः - (सास्त्रं स्वगतम्)
हे मद्वाणि निजां विमुञ्च वसतिं द्राग्देहि यात्रां बहि:
( राजानं प्रति प्रकाशम्)
देव स्तम्भय चेतनां श्रवणयोरभ्येति शुष्काशनिः ।
(दम्पतीशङ्कां नाटयतः ) वामदेव:
[ ३३५ ]
त्वद्रूपाद्विपिनाय चीवरधरो धन्वी जटी शासनं
रामः प्राप्य गतः कुतश्चन वनं सौमित्रिसीतासखः ।। (6/13)536।। (उभौ मूर्च्छतः) वामदेव:- देव! समाश्वसिहि । दशरथ: - ( समाश्वस्य) केन पुनः कारणेन ।" इत्युपक्रम्य, "दशरथ:- वत्स रामभद्र! मन्ये ममेव मलयाचलनिवासिनः प्रियवयस्यस्य जटायोरपि शोकशङ्कुरयं सर्वकषो भविष्यति” (६/५५ पद्यादनन्तरम्) इत्यन्तेन कौसल्यादशरथादीनां रामप्रवासविषयशङ्कात्रासानुवृत्तिकथनात् सम्भ्रमः ।
वामदेव
तुम्हारे रूपधारी से आज्ञा पाकर लक्ष्मण और सीता के साथ राम चीवर, जटाधारण करके कहीं चले गये ।। ( 6.13) 536 ।।
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जैसे वहीं (बालरामायण के षष्ठ अङ्क में ) -
वामदेव- (आँसू बहाते हुए अपने मन में) हे मेरी वाणि! अपने निवास को छोड़ो। शीघ्र बाहर निकलो । (राजा के प्रति) हे देव! चेतना और क्वन को स्तम्भित कीजिए, सूखा वज्रपात हो रहा है। (दशरथ और कैकेयी आकुलता को प्रदर्शित करते हैं। ).
धनुष और
(दोनों मूर्च्छित हो जाते हैं) वामदेव - महाराज ! आश्वस्थ होइए । दशरथ - किसलिए "