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तृतीयो विलासः
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देने ) को आचार्यों ने द्युति कहा है।।६३पू.।।
यथा तत्रैव (बालरामायणे) अष्टमाङ्के
"रावण:- (ऊर्ध्वमवलोक्य) किमयमतिसत्वरः सुरसमाजः। शङ्के कतिपय- . यातुधानवधात् तापसं प्रति प्रीयते। (सक्रोधतर्जनम्)
हर्षोत्कर्षः किमयममराः क्षुद्ररक्षोवधाद् वस्तन्मे दोष्णां विजितजगतां विक्रमं विस्मृताः स्थ । किं चाद्यैव प्रियरणरसो बोध्यते कुम्भकर्ण
स्तूर्णं जेता स च दिविषदां बोध्यते मेघनादः ।।(8/12)542।।
इत्युपक्रम्य "(नेपथ्ये) विरएह केलिआकरपाडणिज्जं गोउरदुवारं। वोडेह विविहप्पहरणसण्णाहदहसहस्साइ। (विरचयत कलिकाकर्षणपातनीयं गोपुरद्वारम्। वहत विविधप्रहरणसन्नाहदशसहस्राणि" (८/१२ पधादनन्तरम्) इत्यन्तेन देवतातर्जनलहापुरजनोद्वेजनकथनाद्युतिः।
जैसे वहीं (बाल रामायण के) अष्टम अङ्क में
"रावण- (ऊपर देखकर) यह देव समाज अत्यधिक शीघ्रता में क्यों है? मालूम पड़ता है कुछ राक्षसों के मारे जाने से तपस्वी (राम) के प्रति ये प्रेमयुक्त हो गये हैं। (क्रोधपूर्वक डाँटते हुए)
हे देवों! क्षुद्रराक्षसों के वध से तुम्हें यह कैसा हर्ष हो रहा है। संसार को जीतने वाले मेरी भुजाओं के पराक्रम को तुम लोग भूल गये? और क्या रणप्रेमी कुम्भकर्ण आज ही जगाया जा रहा है अथ देवजेता मेघनाद शीघ्र ही बुलाया जा रहा है।।542।। . यहाँ से लेकर (नेपथ्य में) कील से खींचने वाले गोपुर के द्वार को बनाओ, विविध अस्त्रों के समूहों को एकत्र करो" (८/१२से बाद) यहाँ तक देवताओं को डाटने और लङ्कानिवासियों को उत्साहित करने का कथन होने से द्युति है।
अथ प्रसङ्गः
प्रस्तुतार्थस्य कथनं प्रसङ्गः परिकीर्तितः ।।६३।।
प्रसङ्ग कथयन्त्यन्ये गुरूणां परिकीर्तनम् ।
(7) प्रसङ्ग- प्रस्तुत-कार्य का कथन प्रसङ्ग कहलाता है। अन्य कतिपय (धनञ्जय आदि) लोग गुरुओं (सम्मानीय लोगों) के गुण-कीर्तन को प्रसङ्ग कहते हैं।।६३उ.-६४पू.॥ के यथा तत्रैव (बालरामायणे) नवमाझे (आदौ)
"(प्रविश्य) यमपुरुष:- तत्रभवतो लुलायलक्ष्मणः सकलपाणिभृतां विहितनाशस्य विनाशस्य किमपि विश्वातिशायिनी प्रभविष्णुता" इत्युपक्रम्य "दशरथ:- भगवन् गीर्वाणनाथ' सप्रसादमितो निधीयन्तां दृष्टयः। (९.१८ पद्यात्पूर्वम्) इत्यन्तेन बमपुरन्दरादि