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रसार्णवसुधाकरः
(2) परिसर्प- अङ्क परिवर्तन के कारण पूर्वोद्दिष्ट किन्तु नष्ट (अर्थात् पहले विद्यमान किन्तु बाद में नष्ट हुई) बीज (वस्तु) का निरन्तर प्रिय स्मरण परिसर्प कहलाता है।।४२।।
यथा तत्रैव (बालरामयणे)
'प्रतीहार:- (स्वगतम्) कथमेते क्षत्रियजनसमुचितेऽपि चापारोपणकर्माण निखिलाः क्षत्रियाः वितथसामा विद्यन्ते। तदेव परमनाकलितसारो विकर्तनकुलकुमार आस्ते। यद्वा किमनेनापि।
यस्य वज्रमणेर्भेदे भिद्यन्ते लोहसूचयः ।
करोतु तत्र किं नाम नारीनखविलेखनम् ।।(3.66)513।।
(विचिन्त्य) भवतु! तथापि सङ्कीर्तयाम्येनम् । अमुना कलितसारो हि वीरप्रकाण्डमम्भूतिः' इत्युपक्रम्य 'हेमप्रभा- सम्पण्णं पिअसहीए पाणिग्गहणं' (सम्पन्नं प्रियसख्याः पाणिग्रहणम्) (३.७९ पद्यानन्तरम्) इत्यन्तेन पूर्व ताटकादिवघदृष्टस्य पश्चान्निखिलक्षत्रियदुरारोपधूर्जटिचापारोपणप्रभाववर्णनान्नष्टस्य रामभद्रोत्साहस्य तद्धनुर्भङ्गप्रेक्षारूपेणानुस्मरणात् परिसर्पः।
जैसे (बालरामायण में)
"प्रतीहारी- (अपने मन में ) क्या ये सभी क्षत्रिय क्षत्रियों के उपयुक्त चापारोपणकार्य में व्यर्थ- पौरुष वाले हो गये हैं। परन्तु इनमें जिसके पौरुष की थाह नहीं चली हैऐसा विकर्तन (सूर्य) कुल का कुमार है। अथवा इससे भी क्या
जिस व्रजमणि के भेदन में लोहे की सूइयाँ टूट जाती हैं यहाँ स्त्रियों के नख की कुरेद क्या करेगी?।।(3.66)513।।
(सोचकर) फिर भी इसे कहूँगी। वीर पुरुषों की सन्तानों के पौरुष की थाह नहीं है।' यहाँ से लेकर -
"हेमप्रभा- प्रियसखी (सीता का) पाणिग्रहण हो गया" (३.७९ पद्य से बाद) तक पहले देखे गये ताटका इत्यादि वध का तत्पश्चात् सम्पूर्ण क्षत्रियों के द्वारा दुरारोपित शङ्कर के धनुष को चगने के प्रभाव से वर्णन हुए रामभद्र के उत्साह का उस धनुष के भङ्ग को देखने के स्मरण के कारण परिसर्प है।
अथ विधूतम्नायकादेरीप्सितानामर्थानामनवाप्तितः । अरतिर्या भवेत्तद्धि विद्वद्धि विधुतं मतम् ।। ४३।।
अथवानुनयोत्कर्षे विधूतं स्यान्निराकृतिः ।
(3) विधूत- नायक इत्यादि के अभीष्ट अर्थ (वस्तु) की प्राप्ति न होने के कारण उससे जो अरति (विराग, अनास्था) होती है, उसे विद्वानों ने विधूत कहा है अथवा अनुनय