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रसार्णवसुधाकरः
इत्यन्तेन प्रतिनायकरूपभार्गवरावणयोरुन्तेजनाद् भेदः।
जैसे वहीं (बालरामायण के द्वितीय अङ्क में)
"रावण- (देखकर) परशुराम ने परशु माँगे जाने पर क्या कहा? मायामयत्रैलोक्यमणि परशुराम के वृत्तान्त को स्वामी सुनें
पौलस्त्य रावण प्रेम से मांग रहा है यह सुन कर मन प्रसन्न हो रहा है। यह शंङ्कर का प्रसाद परशु नहीं देना है इससे अधिक दुःखी हो रहा है। तो रावण से मेरी वाणी कहना कि 'ब्रह्मणों को मैंने पृथ्वी दे दी। तुम बताओं कि स्वर्ग और पाताल में कौन जीत कर तुम्हें दें।। (2/20)512 ।।
रावण- कब से परशुराम स्वर्ग और रसातल का जेता और दाता हुआ है तथा प्रतिग्रह लेने वाला हुआ है। तो तुमने उससे क्या कहा" यहाँ से लेकर "मायामय- देव! रेणुका पुत्र परशुराम स्वभाव से क्रोधी हैं। उन्हें मैं यहीं आया मानता हूँ। रावण- तब तो हमारा प्रिय ही है" तक प्रतिनायक रूप परशुराम और रावण की उत्तेजना के कारण भेद है।
अथ करण:
प्रस्तुतार्थसमारम्भं करणं परिचक्षते। (12) करण- प्रस्तुत कार्य के आरम्भ कर देने को करण कहा जाता है।।३८पू.।। यथा तत्रैव (बालरामायणे) (२/५५ पद्यादनन्तरम)
(उभावपि चापारोपणं नाटयतः)' इत्युपक्रम्य अङ्कपरिसमाप्ते: जामदग्न्यरावणयोः प्रस्तुतार्थसमारम्भकथनात् करणम्।
जैसे- वही (बालरामायण के द्वितीय अङ्क में २/५५ पद्य से बाद में )
"(दोनों चाप चढ़ाने का अभिनय करते हैं।)' से अङ्क की समाप्ति तक परशुराम और रावण के प्रस्तुत कार्य के आरम्भ का कथन होने से करण है।
अथ प्रतिमुख सन्धिः
बीजप्रकाशनं यत्र दृश्यादृश्यान्तरं भवेत् ।।३८।।
तत्स्यात् प्रतिमुखं बिन्दो प्रयत्नस्यानुरारोधतः ।
(२) प्रतिमुख सन्धि- जहाँ बिन्दु के विचार (आश्रय) से बीज का कुछ दृश्य (लक्ष्य) और कुछ अदृश्य (अलक्ष्य) रूप में प्रकाशन होता है, वह प्रतिमुख सन्धि कहलाता है।।३८उ.-३९पू.।।
इह त्रयोदशाङ्गानि प्रयोज्यानि मनीषिभिः ।।३९।। विलासपरिसपौ च विधूतं शमनर्मणी । नर्मद्युतिः प्रगमनं विरोधः पर्युपासनम् ।।४।। पुष्पं वज्रमुपन्यासो वर्णसंहरणं तथा ।