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रसार्णवसुधाकरः
रामणीयकमस्याः। तथाहि
इन्दुर्लिप्त इवाञ्जनेन जडिता दृष्टिमंगीणामिव प्रम्लानारुणिमेव विद्रुमलता श्यामेव हेमद्युतिः । पारुष्यं कलया च कोकिलवधूकण्ठेष्विव प्रस्तुतं
सीतायाः पुरतश्च हन्त शिखिनां बर्हाः सगर्दा इव ।। (1.42)।।510।।
इत्युपक्रम्य 'शतानन्दः (अपवार्य) अहो लङ्काधिपतेरपूर्वगर्वगरिमा। यन्ममापि शतानन्दस्य न निश्चिनुते चेतः। किं भविता' (१/४६ पद्यादनन्तरम्) इत्यन्तेन रावणस्य सीतारामणीयकदर्शनेन शतानन्दस्य रावणोत्साहदर्शनेन च द्वयोश्चित्त-चमत्कारकथनात् परिभावना।
• (9) परिभावना- गुण इत्यादि श्लाघ्य (आश्चर्य-जनक घटना) को देख कर चित्त का चमत्कार (विस्मयान्वित) होना परिभावना कहलाता है।।३६उ.॥
जैसे- वहीं (बालरामायण के) प्रथम अङ्क में
"रावण- (उत्सुकतापूर्वक देख कर अपने मन में) अहा! इसकी सुन्दरता तीनों लोकों से न्यारी तथा काम की सञ्जीवनी है।
क्योंकि सीता के सामने चन्द्रमा ऐसा लगता है मानो अञ्जन से लिप्त है, मृगियों की दृष्टि जैसे जड़ हो गयी है, विद्रुम (मूंगे) की लता की लाली मानों मुरझा गयी है, स्वर्ण की द्युति मानों काली हो गयी है, कोकिल के कण्ठ में मधुरता मानों कर्कशा का रूप ले लिया है और हाय! मयूरों के पल भी मानों कुत्सित हो गये है।(1.42)।।510।।
यहाँ से लेकर 'शतानन्द- (एक ओर मुँह फेर कर ओह, रावण का यह गर्व अपूर्व है कि मुझ शतानन्द का भी मन निश्चित नहीं कर पा रहा है कि क्या होगा' (१.४६ पद्य से बाद) तक रावण का सीता के सौन्दर्य को देखने और शतानन्द का रावण के उत्साह को देखने से दोनों के चित्त के चमत्कार (विस्मय) के कारण परिभावना है।
अथ उद्भेदः
उद्घाटनं यद् बीजस्य स उद्भेद प्रकीर्तितः ।
(10) उद्भेद- बीज का उद्घाटन (गुप्त बात को प्रकट) कर देना उद्भेद कहलाता है।।३७पू.॥
यथा तत्रैव (बालरामायणे) द्वितीयाङ्केरावण:- त्रयम्बकः परशुरेव निसर्गचण्ड (२.३९) इत्यादि पठति।
जामदग्न्यः- अपकुर्वतापि भवता परमुपकृतम् । यदेष स्मारितोऽस्मि। (२.४४ पद्यात्पूर्वम्) इत्युपक्रम्य