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रसार्णवसुधाकरः
नरकरिपुणा सार्धं तेषां सभीमकिरीटिना
मयमहमसृङ्मेदोमांसैः करोमि दिशां बलिम् ।।403।। वध से शत्रुविषयक क्रोध जैसे (वेणीसंहार ३.२४ में)
(अश्वत्थामा कहता है)-हाथ में शस्त्र लिये हुए 'मर्यादा का पालन न करने वाले' नरपशुओं के सदृश जिन आप लोगों ने (आचार्य द्रोण का शिरश्छेदन रूप) यह महान् पातक किया है, अथवा (कृष्ण आदि जिन्होंने उसका) अनुमोदन किया है, अथवा (भीम, अर्जुन आदि जिन्होंने धृष्टद्युम्न को रोकने का) यत्न न करके खड़े-खड़े प्रसत्रतापूर्वक (इस पाप को) देखा है, (नरकासुर के शत्रु) कृष्ण, भीम तथा अर्जुन के सहित उन (धृष्टद्युम्न आदि) के रक्त, चर्बी और मांस से मैं अभी दिशाओं की बलि (पूजन) करता हूँ।।403 ।।
अवज्ञया शत्रुविषयक्रोधो यथा
श्रुतिशिखरनिषद्यावेद्यमानप्रभावं पशुपतिमवमन्तुं चेष्टते यस्य बुद्धिः । प्रलयशमनदण्डोच्चण्डमेतस्य सोऽहं
शिरसि चरणमेनं पातयामि त्रिवारम् ।।404।।
अत्र परमेश्वरावज्ञया जनितो दक्षविषयो दधीचिक्रोधः परुषवागारम्भेण व्यज्यते।
तिरस्कार से शत्रुविषयक क्रोध जैसे
__ वेदों के शिखर रूपी खटोले पर चढ़े लोगों (वेदज्ञों) द्वारा अज्ञात प्रभाव वाले पशुपति (शिव) की अवमानना (तिरस्कार) करने के लिए जिस (दक्ष प्रजापति) की बुद्धि चेष्टा (प्रयत्न) कर रही है इसके (दक्ष के) शिर पर वह मैं तीन बार प्रलय-शान्ति के दण्ड से उग्र इस चरण को गिरा रहा (मार रहा) हूँ।।404।।
यहाँ परमेश्वर (शिव) के तिरस्कार के कारण उत्पन्न दक्ष के प्रति दधीचि का क्रोध कटुवाक्य कथन से व्यञ्जित होता है।।
भृत्यक्रोधे तु चेष्टाः स्युस्तर्जनं मूर्धधूननम् ।
निर्भर्त्सनं च बहुधा मुहुर्निवर्णनादयः ।।१३२।।
भृत्यविषयक क्रोध में चेष्टाएँ- भृत्य विषयक क्रोध में धमकाना (डराना), शिर धूनना, प्राय: गाली देना, ध्यानपूर्वक देखना इत्यादि चेष्टाएँ होती है।।१३२॥
यथा वीरानन्दे
आधूतमूर्धदशकं तरलाङ्गलीकं रूक्षेक्षणं परुषहुवतिगर्भकण्ठम् ।