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तृतीयो विलासः
[३०१]
अथ पताकास्थानकानि__ अङ्कस्य च प्रधानस्य भाव्यवस्थस्य सूचकम् ।
यदागन्तुकभावेन पताकास्थानकं हि तत् ।।१५।।
पताकास्थानक- अङ्क में आगन्तुक के रूप में प्रधान (कथा) की आगे-आने वाली घटना (अवस्था) का सूचक (सूचना देने वाला) पताकास्थानक कहलाता है।।१५।।
विमर्श- जिस कथा का प्रकरण चल रहा है उसमें आगे आने वाली घटना की सूचना पताकास्थानक से मिलती है। यह सूचना पताका (ध्वजा) की भाँति भावी वृत्त को बताती है, अत: पताकास्थानक कहलाती है।
एतद्विधा तुल्यसंविधानं तुल्यविशेषणम् ।।
पताकास्थानक के भेद- यह (पताकास्थानक) दो प्रकार का होता है- (१) तुल्य इतिवृत्त (संविधान) और (२) तुल्यविशेषण ॥१६पू.॥
तत्राद्यं त्रिप्रकारं स्याद् द्वितीयं त्वेकमेव हि ।।१६।। ___ एवं चतुर्विधं ज्ञेयं पताकास्थानकं बुधैः । तथा च भरतः (नाट्शास्त्रो १९/३१)
सहसैवार्थसम्पत्तिगुणवृत्युपचारतः ।
पताकास्थानकमिदं प्रथमं परिकीर्तितम् ।।इति।।
इसमें प्रथम (तुल्यसंविधान पताकास्थानक) तीन प्रकार का होता है, और द्वितीय (तुल्यविशेषण) तो एक ही प्रकार का होता है। इस प्रकार चार प्रकार के पताकास्थानक आचार्यों द्वारा कहे गये हैं। जैसा भरत ने (नाट्यशास्त्र में) कहा है
भरतानुसार लक्षण- सहसा अर्थ सम्पत्ति का गुण तथा वृत्ति के उपचार (आधार) से कहा गया पताकास्थानक प्रथम प्रकार का पताकास्थानक होता है।
यथा रत्नावल्याम्
'विदूषकः- भो एसा देवी वासवदत्ता (भो एषा देवी वासवदत्ता)। (राजा सशई रत्नावली विसृजति)।
इत्यत्रेयं वासवदत्तेत्यनेनोपचारप्रयोगेण भाविनो वासवदत्ता कोपस्य सूचनात् सहसार्थसम्पत्तिरूपमिदमेकं पताकास्थानकम् ।
जैसे रत्नावली मेंविदूषक- अरे! ये महारानी वासवदत्ता है। (राजा सशङ्क रत्नावली को छोड़ देता है)।
यहाँ 'यह वासवदत्ता' इस प्रकार शिष्ट प्रयोग से होने वाले वासवदत्ता के क्रोध की सूचना से सहसा प्रयोजन की पूर्णतारूप यह प्रथम पताकास्थानक कहलाता है।