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रसार्णवसुधाकरः
(३) पताका- प्रधान इतिवृत्त के प्रसङ्ग से सुग्रीव, मकरन्द इत्यादि के वृत्तान्त के समान प्रधान कथानक के साथ गौड़ रूप से दूर तक चलने वाला जो अपने प्रयोजन को भी सिद्ध करता है, वह पताका ही होता है।।१३॥
विमर्श- कथा में प्रयोजन सिद्धि के लिए सत्रिविष्ट किये गये जिससे इति-वृत्त का प्रसङ्गवशात् अपना भी प्रयोजन भी सिद्ध हो जाता है और कथानक के साथ दूर तक चलता रहता है वह पताका कहलाता है। जैसे रामकथा में सुग्रीव की कथा। यह दूर तक चलती है और बालिवध प्रयोजन भी सिद्ध होता है।
अथ प्रकरी
यत्केवलं परार्थस्य साधनं च प्रदेशभाक् ।
प्रकरी सा तु मनुमत्सौदामिन्यादिवृत्तवत् ।।१४।।
(४) प्रकरी- प्रधान इतिवृत्ति के प्रसङ्ग में हनुमान् सौदामिनी इत्यादि के कथानक के समान जो दूसरों के प्रयोजन-सिद्धि का साधन तथा कुछ दूर तक चलने वाला होता है, वह प्रकरी कहलाता है।।१४॥
पताकाप्रकरीव्यपदेशो भावप्रकाशिकाकारेणोक्तः यथा
पताका कस्यापि शोभाकृच्चिह्नरूपतः । स्वस्योपनायकादीनां वृत्तान्तस्तद्वदुच्यते ॥ शोभायै वैदिकादीनां यथा पुष्पाक्षतादयः ।
तथात्र वर्णनादिस्तु प्रबन्धे प्रकरी भवेत् ।।इति।।
पताका और प्रकरी का निरूपण भावप्रकाशिकाकार ने इस प्रकार किया हैजिस प्रकार पताका (ध्वज) चिह्न (पहचान) के रूप से किसी का शोभाधायक होता है उसी प्रकार उपनायकों इत्यादि का वृत्तान्त पताका कहलाता है। पुष्प, अक्षत इत्यादि जैसे (यज्ञ में) वैदिकों (ऋत्विजों, आचार्यों) की शोभा के लिए होते हैं उसी प्रकार प्रबन्ध में वर्णन आदि प्रकरी होता है।
विमर्श- जैसे पताका (झण्डा) नेता का असाधरण चिह्न होते हुए उसका उपकारक होता है वैसे ही यह उपनायक इत्यादि इतिवृत्त भी उसी के समान मुख्यनायक से सम्बन्धित कथा का उपकारक होता है। सम्भवतः उपमा इस प्रकार है कि नायक का एक असाधारण चिह्न (पहचान) पताका होती है और इससे उसका उपकार भी होता है क्योंकि उसी झण्डे द्वारा उसे पहचान सकते हैं। इसी प्रकार जो इतिवृत्त नायक का असाधरण रूप से उपकार किया करता है, उस दूर तक चलने वाले, प्रासङ्गिक इतिवृत्त को पताका कहते हैं और जो छोटा होता है- प्रधानकथानक का दूर तक अनुवर्तन नहीं करता, वह प्रकरी कहलाता है।