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[३०८]
रसार्णवसुधाकरः
फललाभ (फल की प्राप्ति) फलागम है। . ---
अथ सन्धिः
एकैकस्यास्त्ववस्थायाः प्रकृत्या चैकयैकया ।
योगः सन्धिरिति ज्ञेयो नाट्यविद्याविचक्षणैः ।।२६।।
सन्धि- (पाँच प्रकार के इतिवृत्तों-बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य में से), एक-एक का (कार्य की पाँच अवस्थाओं- आरम्भ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम में से) एक-एक के साथ उनकी प्रकृति के अनुसार (क्रमश:) मिलाने को नाट्यशास्त्र के ज्ञाता लोग सन्धि कहते हैं।॥२६॥
विमर्श:- बीज इत्यादि पाँच प्रकार के कथानकों को पाँच आरम्भ इत्यादि के क्रमशः होने पर क्रमश: सन्धियाँ होती हैं। बीज का आरम्भ से मेल होने से मुखसन्धि, बिन्दु का यत्न से मेल होने से प्रतिमुख सन्धि, पताका का प्राप्त्याशा से मेल होने से गर्भसन्धि, प्रकरी का नियताप्ति से मेल होने से अवमर्श सन्धि और कार्य का फलागम से मेल होने पर उपसंहति (उपसंहार) सन्धि उत्पन्न होती है।
पताकायास्त्ववस्थानं क्वचिदस्ति न वा क्वचित् । पताकया विहीने तु बिन्दु वा विनिवेशयेत् ।। २७।। मुखप्रयोजनवशात् कथाङ्गानां समन्वये ।
अवान्तरार्थसम्बन्धः सन्धिः सन्धानरूपतः ।। २८।।
पताका कहीं (किसी नाटक में) होता है और किसी में नहीं। पताका के न होने पर बिन्दु को ही मिला देना चाहिए। मुख्य प्रयोजन के कारण कथा के अङ्गों के नियोजन के लिए जो सन्धान (मिलन) रूप से अवान्तर सम्बन्ध होता है, वही सन्धि कहलाता है।।२७-२८॥
मुखप्रतिमुखे गर्भविमर्शावुपसंहति ।
पञ्चते सन्धयः
सन्धि के भेद- (१) मुख, (२) प्रतिमुख, (३) गर्भ, (४) विमर्श और (५) उपसंहति ये पाँच सन्धियाँ होती हैं।
(मुखसन्धिस्तदङ्गानि च)
तेषु यत्र बीजसमुद्भवः ।।२९।। नानाविधानामर्थानां रसानामपि कारणम् । तन्मुखं तत्र चाङ्गानि बीजारम्भानुरोधतः ।।३०।। उपक्षेपः परिकरः परिन्यासो विलोभनम् । युक्तिः प्राप्तिः समाधानं विधानं परिभावना ।।३१।।