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रसार्णवसुधाकरः
नित्यं पताका प्रकरी चाङ्गं बीजादयः क्वचित् ।। २० ।।
(२) अङ्ग (प्रासङ्गिक) कथावस्तु - नायक के प्रयोजन के लिए नायक से अन्य (उसके सहयोगी) उपनायकों की चेष्टा वाली कथावस्तु अङ्ग (प्रासङ्गिक) कथावस्तु कहलाती है। २०पू.।।
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अङ्ग (प्रासङ्गिक) कथावस्तु के भेद- प्रासङ्गिक कथावस्तु के नित्य दो भेद हैं(अ) पताका, (आ) प्रकरी । कहीं-कहीं बीज इत्यादि भी प्रासङ्गिक कथावस्तु में आ जाते हैं ॥। २०उ. ।।
(बीजादीनां सान्निवेशक्रमः) -
बीजत्वाद् बीजमादौ स्यात् फलत्वात्कार्यमन्ततः ।
तयोः सन्धानहेतुत्वान्मध्ये बिन्दु मुहुः क्षिपेत् ।। २१ ।। यथायोगं पतकाया: प्रकर्याश्च नियोजनम् ।
बीजादि का सन्निवेश क्रम- कथावस्तु का बीज होने के कारण बीज आरम्भ में होता है और फल होने के कारण अन्त में कार्य होता है। दोनों बीज और फल को सन्धान करने वाला कारण होने से मध्य में बिन्दु को रखा जाता है । यथास्थान पताका और प्रका नियोजन होता है ।। २१-२२पू.।
( अथ कार्यस्य पञ्चावस्थाः)
कार्यस्य पञ्चधावस्था पताकादिक्रियावशात् ।। २२ ।। नियताप्तिफलागमाः ।
आरम्भयत्नप्राप्त्याशा
कार्य (फल) की पाँच अवस्थाएँ- पताका इत्यादि क्रियावश कार्य (फल) की पाँच अवस्थाएँ होती हैं- (१) आरम्भ, (२) यत्न, (३) प्राप्त्याशा, (४) नियताप्ति और फलागम (२२उ.-२३पू. ॥
(तत्रारम्भः) -
तत्र तु मुख्यफलोद्योगमात्र आरम्भ इष्यते ।। २३ ।।
यथा - बालरामायणे मुखसन्धौ रामस्य लोकोत्तरोत्कर्षप्राप्तये व्यवसायमात्र आरम्भः । (१) आरम्भ- मुख्य फल की प्राप्ति के लिए उद्योग ( उत्सुकता ) मात्र ही आरम्भ कहलाता है ।। २३ उ. ।।
जैसे - बालरामायण की मुखसन्धि में लोकोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करने के लिए राम का व्यवसाय (निश्चय या उत्सुकता ) मात्र ही आरम्भ है।
अथ यत्न:
यत्नस्तु तत्फलप्राप्त्यामौत्सुक्येन तु वर्तनम् ।