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रसार्णवसुधाकरः
इत्यत्र विशेषणश्लेषेण भाविनो रत्नावलीसन्दर्शनस्य सूचनात् तुल्यविशेषणं नाम चतुर्थं पताकास्थानकमिदम् ।
जैसे (रत्नावली २/४ मे) -
क्षणभर में कलियों से लदी, (दुर्दमनीय उत्कण्ठा युक्त), विकसित होने वाली ( जम्हाई आदि युक्त) पाण्डुर वर्ण वाली, निरन्तर बहने वाली वायु के झकोरों (निरन्तर श्वास-प्रश्वास) से अपना संचार-जन्य खेद प्रकट करती हुई (बढ़ती हुई), मदन नामक वृक्ष से युक्त (कामावेश से युक्त) इस उद्यान तल (सागरिका) को अन्य नारी के समान देखते हुए मैं आज निश्चय ही देवी वासवदत्ता के मुख को क्रोध से कुछ-कुछ लाल वर्ण का कर दूँगा । 1503 ।।
यहाँ श्लेषपूर्ण विशेषण द्वारा होने वाले रत्नावली के दर्शन की सूचना होने से यह तुल्यविशेषण नामक चतुर्थ पताकास्थानक है।
[ ३०४ ]
अथ कार्यम् -
वस्तुनस्तु मतं तस्य धर्मकामार्थलक्षणम् ।।१७।। फलं कार्यमिदं शुद्धं मिश्रं वा कल्पयेत्सुधीः
(५) कार्य (फल) - उस इतिवृत्त का धर्म, काम और अर्थ रूप (त्रिवर्ग) फल कार्य कहलाता है। यह शुद्ध (अर्थात् त्रिवर्ग में से एक) अथवा मिश्र (त्रिवर्ग में से दो या तीनों का मिश्रण) होता है - ऐसा आचार्य लोग कहते हैं । । १७ . - १८ पू. ॥
विमर्श - धर्म, अर्थ और काम को सिद्ध ( प्राप्त) करना ही इतिवृत्त का फल (कार्य) है। इतिवृत्त कारण है तथा धर्म, अर्थ और काम रूप फल उसका कार्य हैं। इसलिए कारिका में धर्मार्थकामलक्षण कहा गया है। कार्य के दो भेद होते हैं- (क) शुद्ध और (ख) मिश्र । मिश्र कार्य भी दो प्रकार का होता है— (१) त्रिवर्ग में से दो का मिश्रण और (२) त्रिवर्ग में से तीनों का मिश्रण। शुद्धं यथा मालतीमाधवे (१०/२३) - कामन्दकी
यत्प्रागेव
मनोरथैर्वृतमभूत् कल्याणमायुष्मतो
स्तत् पुण्यैर्मदुपक्रमैश्च फलितं क्लेशोऽपि मच्छिष्ययोः । निष्णातश्च समागमोऽपि विहितस्त्वत्प्रेयसः कान्तया
सम्प्रीतौ नृपनन्दनौ यदपरं प्रेयस्तदप्युच्यताम् ।।504।। इत्यत्र काव्योपसंहारंश्लोकेन तृतीयपुरुषार्थस्यैव फलत्वकथनात् शुद्धं कार्यमिदम्।
शुद्धकार्य जैसे मालतीमाधव (१०/२३) में
कामन्दकी
पहले ही अभिलाषाओं से चिरञ्जीव तुम दोनों (मालती और माधव ) का जो विवाह रूप कल्याण काङ्क्षित था वह तुम्हारे पुण्यों से, मेरे कर्मों से और मेरी शिष्याओं (सौदामिनी और