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तृतीयो विलासः
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तदृष्टिहारि मम लोचनबान्धवस्य ।
अध्यासितुं च सुचिरं जघनस्थलस्य पर्याप्तमेव करभोरु! ममोरुयुग्मम् ।।502।।
(प्रविश्य सम्भ्रान्तः) कञ्चुकी- देव! भग्नं देव! भग्नम्। राजा- किं नाम। कचकी- भग्नं भीमेन। राजा- किं प्रालयसि!
इत्यत्र श्लिष्टप्रत्युत्तरेण कचकिवाक्येन भाविनो दुर्योधनोरुभङ्गस्य सूचनेन शिष्टोत्तरं नाम तृतीयमिदं पताकास्थानकम् ।
जैसे वेणीसंहार (२.२३) में
राजा- हे करभ (हाथी के बच्चे के सूड़) के समान जाँघों वाली! वायु से चञ्चल वस्त्र के छोर वाली अत एव तुम्हारी दृष्टि को आकर्षित करने वाली मेरी दोनों जाँघे, लहराते हुए वस्त्र वाले (अतः) मेरी आँखों को प्रिय लगने वाले तुम्हारे जघनस्थल (चौड़े चूतड़) के लिए काफी देर तक बैठने के लिए पर्याप्त ही है।।502।।
___ (प्रवेश करके घबड़ाया हुआ) कझुकी- टूट गया महाराज! टूट गया। राजाक्या (टूट) गया? कझुकी- भीम के द्वारा (अर्थात् भीम ने तोड़ दिया)। राजा- ओह! क्या बकवास कर रहे हो?
यहाँ शिष्ट प्रत्युत्तर द्वारा (प्रच्छन्न रूपसे विनयपूर्वक) कञ्चुकी के कथन से होने वाले दुर्योधन की जाँघों को तोड़ने की सूचना होने से शिष्टो-त्तर नामक तृतीय पताकास्थानक है।
तथा च (भरतः नाट्यशाने १९.३४)
व्यर्थो वचनविन्यासः सुश्लिष्टः काव्ययोजकः । उपन्यासेन युक्तास्तु तच्चतुर्थमुदाहृतम् ॥इति।।
और उसी प्रकार आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र १९.३४ में कहा है-दो अर्थ वाले उपन्यासपूर्वक श्लिष्ट पद द्वारा क्रमबद्ध रूप से काव्य की (कथा) को जोड़ने वाला कथन चतुर्थ पताकास्थानक होता है।
यथा (रत्नावल्याम् २/४)- ...
उद्दामोत्कलिकां विपाण्डुररुचं प्रारब्धजृम्भां क्षणादायासं श्वसनोद्गमैरविरलैरातन्वतीमात्मनः । अद्योद्यानलतामिमां समदनां नारीमिवान्यां ध्रुवं पश्यन् कोपविपाटद्युति मुखं देव्याः करिष्याम्यहम् ।।503 ।।