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रसार्णवसुधाकरः
व्याजोक्तयश्च विजने स्थितिरित्यादयो मताः ।
१. अभिलाष- (प्रिय को देखने अथवा उसके गुणों के श्रवण से) समागम के उपाय के प्रारम्भ करने के प्रयत्न से संकल्प (निश्चय) इच्छा का उत्पन्न होना अभिलाष कहा जाता है। इसमें घुसना, निकलना, मौन, मार्ग की ओर देखना, राग प्रकाशन के लिए चेष्टाएँ, अपना प्रसाधन (सजावट) करना, परोक्ष कथन, निर्जन- स्थान में रहना इत्यादि विक्रियाएँ कही गयी है।।१८०-१८२पू.।।
यथा
अलोलैश्च श्वासप्रविदलितलज्जापरिमलैः प्रमोदादुद्वेलैश्चकितहरिणीवीक्षणसखैः । अमन्दैरौत्सुक्यात् प्रणयलहरीमर्मपिशुनै
रपाङ्गैः सिंहक्ष्मारमणमबला वीक्षितवती ।।436।। जैसे
स्थिर (चञ्चलतारहित) श्वाँस के विभक्त होने के कारण लज्जा- सौरभ से युक्त, आनन्द के कारण लहराते हुए, चञ्चल हिरणी के समान उत्सुकता के कारण तीव्र, प्रणय- तरंग की सजीवता को प्रकट करने वाले तिरछी नेत्रों से रमणी ने सिंहभूमि पर रमण करने वाले (शिङ्गभूपाल) को देखा।।436।।
अत्र रागप्रकाशनपरैदृष्टिविशेषैयिके कस्याश्चिदभिलाषो व्यज्यते।
यहाँ राग प्रकाशन में तत्पर दर्शनविशेषों से नायक के प्रति किसी (नायिका) की अभिलाषा व्यञ्जित होती है।
अथ चिन्ता
केनोपायेन संसिद्धिः कदा तस्य समागमः ।। १८२।। दूतीमुखेन किं वाच्यमित्याचूहस्तु चिन्तनम् । अत्र नीव्यादिसंस्पर्शः शय्यायां परिवर्तनम् ।।१८३।। सबाप्पकेकरा दृष्टिर्मुद्रिकादिविवर्तनम् । निर्लक्ष्यवीक्षणं चैवमाद्या विकृतयो मताः ।।१८४।। १. चिन्ता
किस उपाय से (उसके मिलन का कार्य) होगा, कब उसका समागम होगा, दूती के मुख से क्या कहलवाया जाय इत्यादि का ऊहापोह करना चिन्ता कहलाता है। इसमें नीवी इत्यादि का संस्पर्श, शय्या पर करवटें बदलना, अश्रुपूरित वक्र- दृष्टि, मुद्रिका इत्यादि का विस्तार, निरर्थक देखना इत्यादि विकृतियाँ कही गयी हैं।।१८२उ.-१८४।।