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रसार्णवसुधाकरः
शुष्यत्तालुपुटं स्खलत्पदतलं व्यालोकयन्तो दिशः । धावित्वा कथमुपेत्य तमसा गाढोपगूढो गुहा
मन्विष्यन्ति तदन्तरे करतलस्पर्शेन गर्तान्तरम् ।।489 ।।
अत्र नायकं प्रति प्रतिभूपानां भयं तद्घाटीश्रवणादिनोद्दीपितं व्याकुलत्वतालुशोषपदस्खलनाधनुमितैरावेगशाबासादिभिव्याभिचारिभिरुपचितं पलायनगुहाप्रवेशगर्तान्तरान्वेषादिभिरनुभूयमानं भयानकत्वेन निष्पद्यते।
जैसे (चमत्कारचन्द्रिका में)
श्रीशिङ्गभूपाल के शत्रुगण आक्रमण को सुनकर व्याकुल हो जाते हैं। उनके तालु सूख जाते हैं और दिशाओं में देखते हुए उनके पैर लड़खड़ाने लगते हैं तथा दौड़कर किसी प्रकार अन्धकार से युक्त गुफाओं के भीतर प्रवेश करके हाथों से स्पर्श करके उसमें गड्ढे को (छिपने के लिए) खोजते हैं।।489।।
___ यहाँ शत्रु राजाओं का भय, उस आक्रमण को सुनने इत्यादि से उद्दीपित व्याकुलता, तालु के सूखने, पैरों के लड़खड़ाने आदि के द्वारा अनुमान से आवेग, शङ्का, भय इत्यादि व्यभिचारी भावों द्वारा वृद्धि को प्राप्त, पलायन, गुफा में प्रवेश, उसमें भी गड्ढे इत्यादि के खोजने से अनुभूत होता हुआ भयानकता को प्राप्त करता है।
केचित्समानबलयोरनयो सङ्करं विदुः ।। २५२।। न परीक्षाक्षममिदं मतं प्रेक्षावतां भवेत् । तुल्यत्वे पूर्वमास्वादः कतरस्येत्यनिश्चयात् ।। २५३।। स्पर्धापरत्वादुभयोरनास्वादप्रसङ्गतः । तयोरन्यतरस्यैव प्रायेणास्वादनादपि ।। २५४।। युगपद्रसनीयत्वं नोभयोरुपपद्यते ।
एषामङ्गाङ्गिभावेन सङ्करो मम सम्मतः ।।२५५।।
ग्रन्थकार का तुल्य बल वाले दो रसों के सार्य-विषयक विचार- कुछ आचार्य समानबल वाले इन दो रसों का मिश्रण मानते हैं किन्तु यह मत दर्शकों को परीक्षा के लिए समर्थ नहीं होता। क्योंकि समान होने पर पहले किसका आस्वादन होता है- यह निश्चय न होने और स्पर्धाभाव होने से दोनों की प्रसङ्गवशात् एक साथ रसनीयता नहीं प्राप्त होती। इनका अङ्गाङ्गिभाव होने से (मुख्य और गौण रूप से) इन दोनों का मिश्रण होता है,ऐसा मेरा मत है।।२५२उ.-२५५॥
तथा च भारतीये (नाट्यशास्त्रे ७/११९)
भावो वापि रसो वापि प्रवृत्तिवृत्तिरेव वा । सर्वेषां समवेतानां यस्य रूपं भवेद् बहु ।।