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द्वितीयो विलासः
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कहलाता है। इसमें ग्लानि, श्रम, उन्माद, मोह, अपस्मार, दीनता, विषाद, चञ्चलता, आवेग, जड़ता, इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं तथा पसीना निकलना, रोमाञ्च होना, नासाग्र का ढकना इत्यादि विक्रियाएँ होती है।।२४७उ.-२४९।।
यथा (चमत्कारचन्द्रिकायाम्)
अंहश्शेषरिव परिवृतो मक्षिकामण्डलीभिः पूयक्लिन्नं व्रणमभिमृशन् वाससः खण्डकेन । रथ्योपान्ते द्रुतमुपसृतं सवचनेत्रकोणं
छन्नघ्राणं रचयति जनं दद्रुरोगी दरिद्रः ।।488।।
अत्र दगुरोगिविषया रथ्याजनजुगुप्सा मक्षिकापूयादिभिरुद्दीपिता त्वरोपसरणानुमितैर्विषादादिभिः पोषिता नेत्रसोचनादिभिरभिव्यक्ता बीभत्सतामाप्नोति।
जैसे (चमत्कारचन्द्रिका में )
मानो पाप के शेष रह जाने के कारण मक्खियों के समूहों द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ तथा (घाव से निकलने वाले) मवाद से गीले घाव को कपड़े से पोछता हुआ दरिद्र कोढ़ का रोगी गली के किनारे से शीघ्रता से जाने वाले और आखों की कोरों को सङ्कुचित कर लेने वाले लोगों की नासिका को बन्द करा देता है।।488 ।।
यहाँ कोढ़ रोगी से सम्बन्धित गली के लोगों की जुगुप्सा मक्षिका, मवाद इत्यादि द्वारा उद्दीप्त होकर शीघ्रतापूर्वक दूर जाने के अनुमान से विषाद इत्यादि द्वारा पुष्ट तथा आँखों के सङ्कोचन इत्यादि से अभिव्यक्त होकर बीभत्सता को प्राप्त होती है।
अथ भयानकःविभावैरनुभावैश्च स्वोचितैर्व्यभिचारिभिः । भयं सदस्यरस्यत्वं नीत प्रोक्तो भयानकः ।। २५०।।
सन्त्रासमरणचापलावेगदीनताः । विषादमोहापस्मारशङ्काद्या व्यभिचारिणः ।। २५१।।
विक्रियास्त्वास्यशोषाद्याः सात्विकाश्चाश्रुवर्जिताः ।
८. भयानक रस- स्वोचित विभावों, अनुभावों और व्यभिचारी भावों के द्वारा दर्शकों में रसत्व को प्राप्त भय (नामक स्थायी भाव) भयानक रस कहलाता है। उसमें सन्त्रास, मरण, चपलता, वेग, दीनता, विषाद, मोह, अपस्मार, शङ्का इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं तथा मुख-सूखना इत्यादि विक्रियाएँ और आँसू बहने को छोड़कर अन्य सात्त्विक भाव होते हैं।।२५०-२५२पू.।।
यथा (चमत्कारचन्द्रिकायाम्)
श्रीशिङ्गक्षितिनायकस्य रिपवो घाटीश्रुतेराकुलाः
तत्र