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रसार्णवसुधाकरः
अत्राष्टौ सात्विका जाड्यनिर्वेदग्लानिदीनता ।। २४६।।
आलस्यापस्मृतिव्याधिमोहाद्या व्यभिचारिणः ।
६. करुणरस- स्वोचित विभाव, अनुभाव और व्यभिचारीभाव के द्वारा दर्शकों में रसता को प्राप्त शोक करुण (रस) कहलाता है। इस में आठ सात्विकभाव तथा जड़ता, निर्वेद, ग्लानि, दैन्य, आलस्य, अपस्मृति, व्याधि, मोह इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं।।२४५उ.-२४७पू.॥
यथा करुणाकन्दले
कुलस्य व्यापत्या सपदि शतधोद्दीपिततनुर्मुहुर्बाष्पश्वासान्मलिनमपि रागं प्रकटयन् । स्लथैरङ्गैः शून्यैरसकृदुपरुद्धैश्च करणै
युतो धत्ते ग्लानिं करुण इव मूर्तो यदुपतिः ।।487।।
अत्र बन्धुव्यापत्तिजनितो वासुदेवस्य शोको बन्युगुणस्मरणादिभिरुद्दीपितो मलिनत्वेन्द्रियशून्यत्वादिसूचितैर्दैन्यमोहग्लान्यादिसञ्चारिभिः प्रपञ्चितो मुहुर्बाष्पश्चासमलिनमुखरागादिभिरनुभावैरभिव्यक्तः करुणत्वमापद्यते।
जैसे करुणाकन्दल में
कुल (परिवार) की बर्बादी से तुरन्त सैकड़ो प्रकार से जलते हुए शरीर वाले, बार-बार आँसू निकलने और निःश्वास के कारण मलिन राग को प्रकट करते हुए शिथिल और शून्य अङ्गों के द्वारा अनेक बार रुके हुए इन्द्रियों से युक्त कृष्ण साक्षात् करुण के समान ग्लानि (शोक) को धारण करते थे।।487 ।।
___ यहाँ बन्धुओं की बर्बादी से उत्पन्न कृष्ण का शोक, बन्धुओं के गुणों के स्मरण इत्यादि द्वारा उद्दीप्त होकर मलिनता, इन्द्रिय-शून्यता इत्यादि के द्वारा सूचित तथा दैन्य, मोह, ग्लानि आदि सञ्चारिभावों से विस्तृत और बार-बार आँसू गिराने, श्वास, मलिन-मुखराग इत्यादि अनुभावों से अभिव्यक्त होकर करुणता को प्राप्त होता है।
अथ बीभत्स:विभावैरनुभावैश्च स्वोचितैर्व्यभिचारिभिः ।। २४६।। जुगुप्सा पोषमापन्ना बीभत्सत्वेन रस्यते । अत्र ग्लानिश्रमोन्मादमोहापस्मारदीनताः ।। २४८।। विषादचापलावेगजाड्याद्या व्यभिचारिणः ।
स्वेदरोमाञ्चनासापाच्छादनाद्याश्च विक्रियाः ।। २४९।।
७. बीभत्सरस- स्वोचित विभावों, अनुभावों और व्यभिचारी भावों द्वारा पुष्टि को प्राप्त जुगुप्सा (नामक स्थायी भाव) बीभत्सता के रूप में रसित होता है, अत: बीभत्स रस