________________
[२९४]
रसार्णवसुधाकरः
विभावत्व नहीं होता। प्रत्युत (विभावत्व) भावक के चित्त को उल्लास से रति विशेष से युक्त करता है। विभावादि ज्ञान औचित्य विवेक है ( और वह पक्षियों में उपलब्ध नहीं होता) अत: विभावादि ज्ञान का अर्थ है- औचित्य विवेक। उससे शून्य पक्षी विभावत्व को प्राप्त नहीं करते।
तर्हि विभावादिज्ञानरहितेषु मनुष्येषु रसाभासप्रसङ्ग इति चेद, नैष दोषः। विवेकरहितजनोपलक्षणम्लेच्छगतस्य रसस्याभासत्वे स्वेष्टावाप्तेः।
शंका- तो फिर विभावादि-ज्ञान से रहित मनुष्यों में भी रसाभास का प्रसङ्ग हो जायेगा। समाधान- इसमें दोष नहीं है। विवेक-शून्य लक्षण वाले म्लेक्षगत रस का आभासत्व ही प्राप्त होता है।
किञ्च विभावादिसम्भवोऽपि रसं प्रति प्रयोजको न विभावादिज्ञानमेतद् न युज्यते। तथाहि विभावादेविशिष्टस्य वस्तुमात्रस्य वा सम्भवो रसं प्रति प्रयोजकः। विशिष्टप्रयोजकत्वाङ्गीकारे विवेकादिप्रवेशोङ्गीकृत इत्यस्मदनुसरणमेव शरणं गतोऽसि। अथ विवेकं विना तदितरविशेषत्वं वैशिष्टयमिति चेद, ना विशेषाणां धर्मिणि परमोत्कर्षानुसन्धानतत्पराणामन्योऽन्यसहिष्णूनामियत्तया नियमासम्भवात्। अथ यदि वस्तुमात्रस्य, तर्हि
और क्या? विभावादि ही रस का प्रयोजक है, विभावादि का ज्ञान नहीं- यह कहना उचित नहीं है। क्योंकि विभाव इत्यादि या विशिष्ट वस्तु मात्र की उत्पत्ति ही रस के प्रति प्रयोजक होती है। (ऐसी स्थिति में) विशिष्ट प्रयोजकत्व के स्वीकार करने पर (विभाव इत्यादि के) ज्ञान इत्यादि को श्रेय देने वाले (हमारे मत को) स्वीकार करने वाले हमारे ही अनुसरण की आश्रय में गये हैं (अर्थात् हमारे मत का ही समर्थन किये हैं।) यदि विवेक के बिना उससे अन्य विशेषता हो तो भी विशेषणोका धर्म में परमोत्कर्ष खोजने में लगे हुए अन्योन्य सहिष्णुओं की इयत्ता से नियम के सम्भव न होने के कारण नहीं हो सकता। यदि वस्तु मात्र की तो
'अन्वासितमरुन्यत्या स्वाहयेव हविर्भुजम्' (रघु १.५६)
इत्यादावपि खीपुंसव्यक्तिमात्रविभावसद्धावादवासनालक्षणानुभावसम्भवाच्च शृङ्गारः स्वदनीयः प्रसज्यते। किञ्च (गाथासप्तशत्याम् 4.60)
अज्जं मोहण सुत्तं मुअत्ति मोत्तूणपलाइए हलिए । दरफुडिअवेण्टभारोणआइ हसि.व फलहीए ।।500।। (आयाँ मोहनसुप्तां मृतेति मत्वा पलायिते हलिके दरस्फुटितवृन्तभारावनतया हसितमिव कार्पासलताभिः।।)