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रसार्णवसुधाकरः -
का होता है- प्रागभाव, अत्यन्ताभाव और प्रध्वंसाभाव। इसमें प्रागभाव में दर्शन इत्यादि कारणों के होने पर रागोत्पत्ति होने की सम्भावना से आभासता नहीं होती। अन्य दोनों (अत्यन्ताभाव और प्राध्वंसाभाव) में कारण होने पर भी राग की उत्पत्ति न होने से आभासता ही होती है। पुरुष में भी रागाभाव होने पर रस की आस्वादनीयता नहीं होती रसाभास ही होता है। यथा (अमरुशतके ४३)- ..
गते प्रेमावेशे प्रणयबहुमानेऽपि गलिते निवृत्ते सद्भावे प्रणयिनि जने गच्छति पुरः । तदुत्प्रक्ष्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि! गतांस्तांश्च दिवसान्
न जाने को हेतुर्दलति शतधा यन्त्र हृदयम् ।।494।। अत्र हृदयदलनाभावपूर्वगतदिवसोत्प्रेक्षाद्यनुमितैर्निवेदस्मृत्यादिभिरभिव्यक्तोऽपि स्त्रिया अनुरागः प्रेमावेशश्लथनादिकथितेन पुरुषगतरागध्वंसेन चारुतां नाप्नोति।।
जैसे (अमरुशतक ४३ में)__ (कलहान्तरिता नायिका सखी से कह रही है-) जब प्रेम के सभी बन्धन शिथिल हो गए, प्रेम से उत्पन्न गौरव गल गया और सद्भाव से रहित होकर जब प्रिय, अपरिचित के समान सामने आकर चला गया तब फिर उन बीते दिनों को सोच कर न जाने क्यों हृदय टुकड़े-टुकड़े नहीं हो जा रहा है?।।494।।
यहाँ हृदय के टुकड़े-टुकड़े होने के अभाव से बीते हुए दिनों की उपेक्षा आदि अनुमानों के द्वारा निर्वेद, स्मृति इत्यादि से अभिव्यक्त भी स्त्री का अनुराग, प्रेमबन्धन की शिथिलता इत्यादि कथन से पुरुष- विषयक राग के विनष्ट हो जाने से रुचिकर नहीं होता।
पुरुषरागात्यन्ताभावेन रसाभासत्वं यथा (नागानन्दे १/१)
ध्यानव्याजमुपेत्य चिन्तयसि कामुन्मील्य चक्षुः क्षणं पश्यानङ्गशरातुरं जनमिमं त्रातापि नो रक्षसि । मिथ्याकारुणिकोऽसि निघृणतरस्त्वत्तः कुतोन्यःपुमान्
सेयं मारवधूभिरित्यभिहितो बोधौ जिनः पातु वः ।।495।। पुरुष राग के अत्यन्ताभाव से रसभासता जैसे (नागानन्द १.१में)
ध्यान का बहाना बना कर किस स्त्री को मन में सोच रहे हो? क्षण भर के लिए आँख खोल कर कामदेव के बाणों से पीड़ित हुई हमें तो देखो! रक्षक होते हुए भी हमारी रक्षा नहीं करते? झूठे ही दयालु बनते हो! तुमसे अधिक निर्दयी और कौन पुरुष होगा? यों काम- देव की साथ वाली युवतियों (अप्सराओं) द्वारा ईर्ष्या ताने के साथ कहे जाते हुए, तत्त्वज्ञान के निमित्त समाधि- स्थित भगवान् बुद्ध तुम्हारी रक्षा करें।।495 ।।