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द्वितीयो विलासः
१. आत्मस्थ हास्य रस- अपने ही विकारों से स्वयं हँसना आत्मस्थ हास्य (रस) कहलाता है ।। २२८. ।।
यथा बालरामायणे (२.२)
भिङ्गिरिटि :- ( आत्मानं निर्वर्ण्य सोपहासम् ) अहो! त्रिभुवनाधिपतेरनुचरस्य महार्हवेषता ।
कौपीनाच्छादने वल्कलमक्षसूत्रं जटाच्छटाः ।
रुद्राङ्कुशस्त्रिपुण्ड्रं च वेषो भिङ्गिरिटेरियम् ।।474।। अत्र भिङ्गिरिटिः स्ववेषवैकृतेन स्वयमात्मानं हसति ।
[ २७५ ]
जैसे (बालरामायण २.२ में ) -
भिङ्गिरिटि - (अपने को देखकर हँसते हुए) अहो ! त्रिभुवन-नायक (शङ्करजी) के अनुचर का यह बहुमूल्य वेष है
कौपीन ही पहनने का वस्त्र है, वल्कल, रुद्राक्षमाला, जटाएँ, त्रिशूल और त्रिपुण्ड यही भृङ्गरिटि का वेष है ।। 474।।
रसा. २१
यहाँ भृङ्गिरटि अपने वेष-विकार से स्वयं हँसता है ।
परस्थस्तु परप्राप्तैरेतैर्हसति चेत् परम् ।
२. परस्थ हास्य रस- दूसरे व्यक्ति के प्राप्त विकार से यदि ( उस विकृत व्यक्ति से) अन्य (व्यक्ति हँसता है तो वह परस्थ हास्य (रस) कहलाता है ।। २२९पू.।।
यथा (शिशुपालवधे ५/७)त्रस्तः समस्तजनहासकरः करेणोस्तावत्खरः प्राखरमुल्ललयाञ्चकार । यावच्चलासनविलोलनितम्बबिम्बविस्रस्तवस्त्रमवरोधवधूः पपात 11475।।
परस्थ हास्य रस जैसे (शिशुपालवध ५/७ में) -
हथिनी से डरा हुआ तथा सब लोगों को हँसाने वाला गधा तब तक उछलता रहा जब तक सरके हुए (उछलने से बन्धन के ढीला पड़ने के कारण नियत स्थान को छोड़े हुए) आसन (पीठ पर कसे हुए जीन या कम्बल आदि) से वस्त्रहीन नितम्बों वाली अन्त: पुर की दासी वहीं गिर पड़ी ।। 475 ।।
प्रकृतिवशात् स च षोढा स्मितहसिते विहसितावहसिते च । । २२९ अपहसितातिहसितके ज्येष्ठादीनां कमाद् द्वे द्वे ।
स्वभाववश हास्य रस के भेद- स्वभाव के कारण वह छः प्रकार का होता है
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