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रसार्णवसुधाकरः
जैसे
पुत्र
के प्रेम के समान 'प्रेम' के कारण दोनों कपोलों का चुम्बन करने की इच्छा वाले अत एव गणेश के मुख को खींचने पर गाढ़ आलिङ्गन मुख वाले प्रमथ दम्पती (शिव का पतिपत्नी वाला गण) को देख कर हँसते हुए और क्रीडानृत्य के कारण शिथिल तथा हिलते हुए उदर वाले वे बालक (गणेश) अनिष्ट से तुम लोगों की रक्षा करें। 1480 ।।
करोपगूढपार्श्व
यदुद्धतायतनिस्वनम् ।
बाष्पाकुलाक्षयुगलं तच्चातिहसितं भवेत् ।। २३४।।
६. अतिहासित - जिस में पसलियाँ हाथों में छिप जाय, बहुत देर तक ऊँची आवाज हो और दोनों आँखे आँसू से भर जॉय, वह हास्य उपहसित होता है || २३४ || यथा (शिशुपालवधे १५.३९)
इति वाचमुद्धतमुदीर्य सपदि सह वेणुदारिणा । सोढरिपुबलभरोऽसहनः स जहास दत्तकरतालमुच्चकैः ।।481 ।।
जैसे (शिशुपालवध १५-३९ मे) -
शत्रुओं के पराक्रम को सहने वाला एवं (श्रीकृष्ण के युधिष्ठिरकृत सत्कार को) नहीं सहन करता हुआ शिशुपाल इस प्रकार निष्ठुर वचन कह कर तत्काल नरकात्मज के साथ ताल ठोक कर उच्च स्वर से अट्टहास किया । । 481।।
अथ वीरः
विभावैरनुभावैश्च स्वोचितैर्व्यभिचारिभिः ।
नीतः सदस्यरस्यत्वमुत्साहो वीर उच्यते ।। २३५।।
३. वीर रस - स्वानुकूल विभावों, अनुभावों तथा व्यभिचारीभावों द्वारा सभा के लोगों (दर्शकों) में रसता को प्राप्त उत्साह (नामक स्थायी भाव) वीर रस कहलाता है॥ २३५॥ एष त्रिधा समासेन दानयुद्धदयोद्भवाः ।
वीर रस के भेद - यह (वीर रस) संक्षेप में दान, युद्ध और दया से उत्पन्न क्रमशः तीन प्रकार का कहा गया है- १. दानवीर २. युद्धवीर और ३. दयावीर ।। २३६पू.।। दानवीरे धृतिर्हर्षो मत्याद्या व्यभिचारिणः ।। २३६ ।। स्मितपूर्वाभिलाषित्वं स्मितपूर्वं च वीक्षितम् ।
प्रसादे बहुदातृत्वं तद्वद्वाचानुमोदितम् ।। २३७।। गुणागुणविचाराद्यस्त्वनुभावाः समीरिताः ।
१. दानवीर - दानवीर में धृति, हर्ष, मति इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं। स्मितपूर्वक अभिलाषत्व, स्मितपूर्वक देखना, प्रसन्न होने पर बहुत देना, वाणी द्वारा उसका