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द्वितीयो विलासः
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अनुमोदन गुण और दोष का विचार इत्यादि अनुभाव कहे गये हैं।।२३६-२३८पू.।।
यथा
अमुष्मै चौराय प्रतिहतभिये भोजनृपतिः परं प्रीतः प्रादादुपरितनपादद्वयकृते । सुवर्णानां कोटीर्दश दशनकोटिशतहरीन्
करीन्द्रानप्यष्टौ मदमुदितगुञ्जन्मधुलिहः ।।482।। जैसे
अत्यधिक प्रसन्न भोजराज ने इस निडर चोर के पैरों के ऊपरी भाग के लिए सुवर्णों का दस करोड़ (मुद्रा), दाँत वाले सौ करोड़ घोडों और मदमत्त गुजार करते हुए भ्रमरों वाले आठ हाथियों को दिया।।४८२।।
युद्धवीरे हर्षगर्वमोदाद्या व्यभिचारिणः ।। २३८।। असाहाय्येऽपि युद्धेच्छा समरादपलायनम् ।
भीताभयप्रदानाद्या विकारास्तत्र कीर्तिताः ।। २३९।।
२. युद्धवीर- युद्धवीर में हर्ष, गर्व, मोद इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं। उसमें असहाय (निर्बल) के प्रति भी युद्ध करने की इच्छा, युद्ध में डटे रहना, भयभीत लोगों को अभयदान देना इत्यादि विकार (अनुभाव) कहे गये हैं।।२३८पू.-२३९॥
यथा (रघुवंशे ७-५६)
रथी निषङ्गी कवची धनुष्मान् दृप्तः स राजन्यकमेकवीरः । विलोलयामास महावराहः
कलपक्षयोवृत्तमिवार्णवाम्भः ।।483 ।। जैसे (रघुवंश ७/५६ में)
जिस प्रकार प्रलय के समय वाराह रूपधारी भगवान् विष्णु समुद्र के बढ़े हुए जल को चीरते हुए आगे चलते गये उसी प्रकार रथ पर बैठे हुए कवच तथा तरकस को धारण किये हुए वे अद्वितीय वीर अज अकेले ही शत्रुओं की सेना को चीरते चले जा रहे थे।।483 ।।
दयावीरे धृतिमतिप्रमुखा व्यभिचारिणः । स्वार्थप्राणव्ययेनापि विपन्नत्राणशीलता ।। २४०।।
आश्वासनोक्तयः स्थैर्यमित्याद्यास्तत्र विक्रियाः । . ३. दयावीरदयावीर में धृति, मति इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं। उसमें अपना धन और प्राण