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द्वितीयो विलासः
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यहाँ पार्वती के मान के कारण का परमेश्वर (शङ्करजी) द्वारा किये गये सन्ध्या के प्रणाम का आभासत्व होता है।
ननु 'अलिअपसुत्ते' इत्यत्र गण्डपरिचुम्बनस्य निषेधो न श्रूयते। मुश्च कोपमित्यत्र च निषेधो न ब्रूयते। कथमस्य निहेतुकस्य मान (मेति वा नेति वा निषेधाभावेऽपि) मानत्वमिति चेत्। पूर्वस्मिन्नुदाहरणे: मेति मेति वाचिकनिषेधस्योपलक्षणत्वादप्रतिक्रियया चुम्बनाङ्गीकारलक्षणो निषेधो विद्यत एव। अपरत्र पुनरनुत्तरदानादिनानङ्गीकारलक्षणो निषेधो विद्यत एव।
शङ्का- 'अलिअप्पसुत्ते' यहाँ गालों के चुम्बन का निषेध नहीं सुनायी पड़ता है और 'कोप छोड़ो' यहाँ भी निषेध नहीं है फिर इसकी निर्हेतुक की 'मत-मत अथवा नहींनहीं'- इस निषेध के अभाव होने पर भी मान कैसे है। समाधान- पूर्ववर्ती उदाहरणों में 'मतमत' यह वाचिक निषेध की उपलक्षणता होने से अप्रतिक्रिया के कारण चुम्बन के स्वीकार रूपी निषेध है ही। दूसरी ओर फिर उत्तर देने इत्यादि के द्वारा (चुम्बन का) अस्वीकार रूप निषेध है।
ननु निहेतुकस्य मानस्य भावकौटिल्यरूपमानस्य च को भेद इति चेद उच्यते। निर्हेतुकमाने तु कोपव्याजेन चुम्बनादिविलम्बात् प्रेमपरीक्षणं फलं, भाव-कौटिल्यमाने तु चुम्बनाद्यविलम्बः फलमिति स्पष्ट एव तयोर्भेदः।
निर्हेतुज और भावकौटिल्य मान में भेद
फिर निहेंतुक मान और भावकौटिल्य रूप मान में क्या भेद है, इस विषय में कहते हैं- निहेंतुक मान में तो कोप के बहाने से चुम्बन इत्यादि में विलम्ब के कारण प्रेम का परीक्षण फल है किन्तु भावकौटिल्य मान में चुम्बनादि में शीघ्रता फल है। इस प्रकार दोनों का भेद स्पष्ट है।
निर्हेतुकं स्वयं शाम्येत् स्वयं ग्राहस्मितादिभिः ।। २०७।।
निर्हेतुक मान की शान्ति- निर्हेतुक मान स्वयं पकड़ने, मुस्कराने इत्यादि से अपने आप शान्त हो जाता है।।207।।
यथा (कन्दर्पसम्भवे)
इदं किमार्येण कृतं ममाङ्के । मुग्धे किमेतद् रचितं त्वयेति । तयोः क्रियान्तेष्वनुभोगचिह्नः
स्मितोत्तरोऽभूत् कुहनाविरोधः ।।454।।
अत्र लक्ष्मीनारायणयोरन्योन्यमानस्य परस्परकृतभोगचिह्नकारणभासजनितस्य स्मितोत्तरतया स्वयं शान्तिरवगम्यते।