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द्वितीयो विलासः
यादृच्छिकत्वम् ।
अत्र मानप्रणोदनघनगर्जितसन्त्रासस्य प्रियप्रयत्नैर्विना दैववशेन सम्भूतत्वाद्
उस यादृच्छिक से मानशान्ति जैसे
इस नायिका के मान को शान्त करने के लिए (उसके) पैरों पर गिरे हुए
के लिए भाग्य से बादलों की गर्जना हो गयी ।।460 ।।
[ २६५ ]
मेरे उपकार
मानशान्ति के कारणभूत घनगर्जना का भय उत्पन्न होना प्रियतम के प्रयत्न के बिना ही भाग्य से हो गया, अतः यहाँ यादृच्छिकता है।
प्रत्त्युत्पन्नधियां पुसां कल्पितं बुद्धिपूर्वकम् ।। २१२ ।।
(२). बुद्धिपूर्व - प्रत्युत्पन्न बुद्धि वाले मनुष्यों की कल्पना बुद्धिपूर्व कहलाती है ।। २१२उ. ।।
यथा (अमरुशतके ७२)
लीलातामरसाहतोऽन्यवनितानिश्शङ्कदष्टाधरः
कश्चित् केसरदूषितेक्षण इव व्यामील्य नेत्रे स्थितः । मुग्धा कुड्मलिताननेन ददती वायुं स्थिरा तस्य सा
भ्रान्त्या धूर्ततयाथ सा नतिमृते तेनानिशं चुम्बिता ।।461 ।। अत्र मानापनोदनस्य प्रियंत्रासस्य नेत्रव्यावृतिनटनलक्षणया नायकस्य प्रत्युत्पन्नमत्या कल्पितत्वाद् बुद्धिपूर्वकत्वम् ।
बुद्धिपूर्वकत्व से मानशान्ति जैसे (अमरुशतक ७२ में ) -
(सखी-सखी से कह रही है )- किसी नायक के अधरों को किसी अन्य स्त्री ने निडर होकर काट लिया था जिसे देख कर नायिका ने उसके मुख पर नीलकमल से प्रहार कर दिया। नायक आँखे मूँद कर यों बैठ गया मानो उसकी आँखे कमल के केसर पराग से दुःख रही हो ! भोली नायिका भ्रान्तिवश (नायक को दुःखी समझ जाने की भूल से) अथवा धूर्तता से (पैरों पर गिरने के बाद प्रसन्न होने की क्या आवश्यकता, अतः अच्छा मौका हाथ आया है- यह सोचकर) फूँक मारती हुई उसके सम्मुख बैठ गयी और नायक बिना चरण पर गिरे ही उसे लगातार चूमने लगा । । 261।।
पूर्वसङ्गतयोर्यूनोर्भवेद्
देशान्तरादिभिः । चरणव्यवधानं यत् स प्रवास इतीरितः ।। २१३ ।। तज्जन्यो विप्रलम्भोऽपि प्रवासत्वेन सम्मतः ।
यहाँ मान को दूर करने वाले प्रिय के भय का नेत्र के मूँद लेने के नाटक के कारण नायक की प्रत्युत्पन्न मति का कथन होने से बुद्धिपूर्वकत्व है।
अथ प्रवास: