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रसार्णवसुधाकरः
हर्षगर्वमदव्रीडा .. वर्जयित्वा समीरिताः ।। २१४।।
शृङ्गारयोग्या सर्वेऽपि प्रवासे व्यभिचारिणः ।
(इ) प्रवास विप्रलम्भ- पहले मिले हुए युवकों (नायक और नायिका) के उपभोग में देशान्तर (गमन) इत्यादि के कारण व्यवधान होना प्रवास कहा जाता है। उस (प्रवास) से उत्पन्न विप्रलम्भ भी प्रवासता के रूप में माना जाता है। इस प्रवास (विप्रलम्भ) में हर्ष, गर्व तथा व्रीडा को छोड़कर (अन्य) सभी शृङ्गार के योग्य व्यभिचारी भाव होते हैं।।२१३-२१५पू.।।
कार्यतः सम्भ्रमाच्छापात् तत् त्रिधा
प्रवास के प्रकार- (क) कार्य (ख) सम्भ्रम और (ग) शाप के कारण उत्पन्न यह प्रवास विप्रलम्भ तीन प्रकार का होता है।
तत्र कार्यजः ।।२१५।। बुद्धिपूर्वतया यूनोः सन्निधानव्यपेक्षया ।
वृत्तो वर्तिष्यमाणश्च वर्तमान इति त्रिधा ।। २१६।।
कार्यज प्रवास के भेद- बुद्धिपूर्वक अर्थात् समझ बूझ कर मिलने की आशा से कार्यज प्रवास (१) भूत (२) भविष्य और (३) वर्तमान- तीन प्रकार का होता है।।२१६।।
धर्मार्थसङ्ग्रहो बुद्धिपूर्वो व्यापारः कार्यम् ।
(क) कार्य- बुद्धिपूर्वक धर्म और अर्थ का संग्रह रूप व्यापार कार्य कहलाता है।।२१७पू.॥
तेन वृत्तो यथा (रघुवंशे ६.२३)क्रियाप्रबन्धादयमध्वराणामजस्रमाहूतसहस्रनेत्रः ।
शच्याश्चिरं पाण्डुकपोललम्बान् मन्दारशून्यानलकांश्चकार ।।462।। उस(कार्य) से भूतकाल वाला (प्रवास विप्रलम्भ) जैसे (रघुवंश ६/२३ में)
सर्वदा यज्ञ करके इन्होंने इन्द्र को अपने यहां बार-बार बुलाया है जिसका फल यह हुआ है कि इन्द्राणी के पीले कपोलों पर लटकने वाले बाल शृङ्गार न होने के कारण कल्प-वृक्षों के फूलों से शून्य हो गये है। अर्थात् इन्द्र को इनके यज्ञ में आ जाने पर पति के पास न रहने से इन्द्राणी ने शृङ्गार करना छोड़ दिया है।।462।।
अत्र पुरन्दरस्य पूर्व शचीमामन्त्र्य पश्चादध्वरप्रदेशगमनेन तयोः सन्निधानव्यपेक्षया विप्रलम्भस्य भूतपूर्वत्वम् ।
___यहाँ इन्द्र के पहले इन्द्राणी को बुलाकर फिर यज्ञ में चले जाने से दोनों के मिलने की आशा से विप्रलम्भ की भूतपूर्वता है।