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रसार्णवसुधाकरः ।
दिव्य सम्भ्रम से प्रवास विप्रलम्भ जैसे (विक्रमोर्वशीय ४/९ में )
वह (उर्वशी) क्रोध के कारण अपने (देवाङ्गनात्व के दिव्य) प्रभाव से छिप कर बैठ सकती है (यह शंका होती है परन्तु उसी समय उसका समाधान हो जाता है कि) किन्तु वह बहुत देर तक नाराज नहीं रहती है (फिर दूसरी शङ्का होती है कि) शायद (मुझको ) छोड़कर स्वर्ग चली गयी हो (पर साथ ही उसका निवारण हो जाता है कि) उसका मन मुझ पर स्नेह से आर्द्र है (इस लिए मुझे छोड़कर स्वर्ग को नहीं जा सकती है)। तब फिर क्या कोई हरण कर ले गया । यह शङ्का होती है (उसके साथ ही उसका समाधान हो जाता है कि) मेरे सामने से असुर भी उसका अपहरण नहीं कर सकते (औरों की बात ही क्या है)। इसलिए कोई अपहरण कर ले गया हो यह भी सम्भव नहीं) फिर भी वह आँखों के सामने से ओझल हो गयी है, यह कैसी भाग्य है (कुछ समझ में नहीं आता है)।।465।।
यहाँ विप्रलम्भ का दूसरे कारणों के निराकरण से 'यह कैसा भाग्य है' इस प्रकार विधि (भाग्य) की कारणता के अभिप्राय से दिव्यसम्भ्रम की उत्पत्ति प्रतीत होती है।
अथ शाप:
शापो वैरूप्यताद्रूप्यप्रवृतेर्द्विविधो भवेत् ।। २१६।।
प्रवासः शापवैरूप्यादहल्यागौतमादिषु ।
(ग) शाप - वैरूप्य और ताद्रूप्य भेद से दो प्रकार का होता है। शाप वैरूप्य से प्रवास (विप्रलम्भ) अहिल्या-गौतम इत्यादि में हुआ है।।२१७उ.-२१८पू.॥
ताडूप्येण यथा (मेघदूते १/१)
कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः । यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु, वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ।।466।। शापताद्रूप्य से प्रवास विप्रलम्भ जैसे (मेघदूत १/१ में)
अपने कर्तव्य-पालन में असावधान (अतः) प्रिया के वियोग के कारण दुःसह और वर्षपर्यन्त भोगे जाने वाले स्वामी के शाप से शक्तिविहीन किसी यक्ष ने, सीता के स्नान करने से पवित्र जल वाले तथा घने नमेरू वृक्षों से युक्त रामगिरि (नामक पर्वत के) आश्रमों में निवास किया।।466।।
अथ करुणः
द्वयोरेकस्य मरणे पुनरुज्जीवनावधौ ।।२१८।। विरहः करुणोऽन्यस्य सङ्गमाशानिवर्तनात् करुणभ्रमकरित्वात् सोऽयं करुण उच्यते ।।२१९।।