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द्वितीयो विलासः
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प्रच्छदान्तगलिताश्रुबिन्दुभिः क्रोधभिन्नवलयैर्विवर्तनैः ।।449।। उत्स्वप्नानुमिति से ईर्ष्यामान जैसे (रघुवंश १९/२२ में)
जब स्त्रियाँ देखती थीं कि राजा अग्निवर्ण स्वप्न में बड़बड़ाते हुए दूसरी स्त्री की बड़ाई कर रहा है तब वे स्त्रियाँ बिना बोले ही बिस्तर से कोने में आंसू गिराती हुई क्रोध से कङ्गन को तोड़ कर उनसे पीठ फेर कर सो जाती थी, इस प्रकार उससे रुठ कर उसका तिरस्कार करती थीं।।449।।
श्रुतिः प्रियापराधस्य श्रुतिराप्तसखीमुखात् ।
श्रुति- प्रिय सखी के मुख से प्रिय के (अन्य नायिका के समागम वाले) अपराध का सुनना श्रुति कहलाता है।।२०६पू.।
श्रुतिजनितेय॑या मानो यथा- (अमरुशतके.५)
अङ्गल्याग्रनखेन बाष्पसलिलं विक्षिप्य विक्षिप्य किं तूष्णीं रोदिषि कोपने! बहुतरं फूत्कृत्य रोदिष्यसि । यस्यास्ते पिशुनोपदेशवचनैर्मानेऽतिभूमिं गते
निर्विण्णोऽनुनयं प्रति प्रियतमो मध्यस्थतामेष्यति ।।450 ।। श्रवण से ईष्यामान जैसे (अमरुशतक ५ में)
रे कोपने ! इस प्रकार अङ्गलियों के नख से आसुओं की बूंदों को टुकड़े-टुकड़े करती हुई तुम धीरे-धीरे क्यों रो रही हो। यदि दुष्टों के वचनों को मान कर क्रोध करने में अति कर दिया तो तुम्हारा प्रिय इससे इतना खिन्न हो जाएगा कि फिर तुम्हारे अनुनय की भी उपेक्षा कर बैठेगा जिससे तुम्हें चिल्ला चिल्लाकर बहुत अधिक रोना पडेग़ा।।450।।
अत्र पिशुनसखीजनोपदेशजनितो मानो बाष्पादिभिर्व्यज्यते।
यहाँ दुष्ट सखियों के द्वारा कहे गये उपदेश को सुनने से उत्पन्न मान आँसू आदि गिरने से व्यञ्जित होता है।
कारणाभावसम्भूतो निर्हेतुः स्यात् द्वयोरपि ।।२०६।।
अवहित्थादयस्तत्र विज्ञेया व्यभिचारिणः । निर्हेतुजमान- कारण न होने पर भी (बिना कारण) दोनों (नायक और नायिका) का मान निर्हेतुज मान कहलाता है। इसमें अवहित्था (आन्तरिकभावों को छिपाना) इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं।।२०६उ.-२०७पू.।।
विमर्श- निहेंतुक मान नायक और नायिका दोनों में होता है। इसमें कभी नायकनायिका से और कभी नायिका नायक से बिना कारण मान कर बैठती है।
तत्र पुरुषस्य यथा (अमरुशतके ७)- -
लिखनास्ते भूमिं बहिरवनतः प्राणदयितो
रसा.२०