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रसार्णवसुधाकरः -
है। ३. स्वप्न की बड़बड़ाहट में अन्य नायिका का नाम आ जाने के कारण अनुमान से अन्यासक्ति से जाने ज्ञान के कारण से उत्पन्न मान उत्स्वप्न ईर्ष्यामान होता है।
भोगाङ्कानुमितिजनितेया॑मानो यथा ममैव
को दोषो मणिमालिका यदि भवेत् कण्ठे न किं शङ्करो धत्ते भूषणमर्धचन्द्रममलं चन्द्रे न किं कालिमा । तत्साध्वेव कृतं भणितिभि वापराद्धं त्वया __ भाग्यं द्रष्टुमनीशद्धं यैव भवतः कान्तापरामया ।।447।।
अत्र मणिमालिकादिलक्षणमदनमुद्रानुमितिप्रियापराधजनितासम्भूतो मानः तत्साध्वेव कृतमित्यादिभिर्विपरीतलक्षणोक्तिभिर्व्यज्यते।
भोगाङ्कानुमिति से ईष्या मान जैसे (शिङ्गभूपाल का ही)
यदि मणिमालिका (मणिनिर्मित माला) गले में नहीं है तो इसमें दोष ही क्या है (अर्थात् कोई दोष नहीं) क्या शंकर जी निर्मल अर्धचन्द्र को धारण नहीं करते (अर्थात् अवश्य धारण करते हैं) और उस चन्द्रमा में क्या कालिमा (दाग) नहीं है (अर्थात् अवश्य है) तो आपने (परनायिका से सम्भोग करके) अच्छा ही किया है, अच्छा ही किया है (यह तो अपराध मेरा है कि) मैं आप के इस सौभाग्य को देखने के लिए सक्षम नहीं हूँ। इस प्रकार (वक्रोकि से) कहने वाली नायिका के प्रति मैने (परस्त्री-गमन का) अपराध किया है।।447 ।।
यहाँ मणिमालिकादि लक्षणभूत (दूसरी नायिका से समागम रूप) काम के चिह्न से अनुमान किये गये प्रिय के अपराध से उत्पन्न ईर्ष्या से प्रादुर्भूत मान 'तो तुमने अच्छा ही किया इत्यादि विपरीत उक्ति द्वारा व्यञ्जित होता है।
गोत्रस्खलनेन यथा ममैव
नामव्यतिक्रमनिमित्तरुषारुणेन नेत्राञ्चलेन मयि ताडनमाचरन्त्याः । मा मा स्पृशेति परुषाक्षरवादरम्यं
मन्ये तदेव मुखपङ्कजमायताक्ष्याः ।।448 ।। गोत्रस्खलन आनुमिति से ईर्ष्या जैसे (शिङ्गभूपाल का ही)
(मेरे द्वारा) नाम लेने में व्यक्तिक्रम हो जाने के कारण क्रोध से लाल नेत्रों की कोरों (किनारों) से मेरे प्रति पीटने का आचरण करती हुई विशाल नेत्रों वाली प्रियतमा के 'मत मत छुओ' इस प्रकार कठोर वचनों के कहने से रमणीय मुखकमल को मैं वैसा ही मानता हूँ।।448।।
उत्स्वप्नेष्यर्या यथा (रघुवंशे १९/२२)
स्वप्नकीर्तितविपक्षमङ्गनाः प्रत्यभैत्सुरवदन्त्य एव तम् ।