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[ २५४ ]
यथा
रसार्णवसुधाकरः
औत्सुक्यादनपोतसिंहृनृपतेराकारमालिख्य सा निर्वर्ण्यायमसौ मम प्रिय इति प्रेमाभियोगभ्रमात् । आशूत्थाय ततोऽपसृत्य तरसा किञ्चिद्विवृत्ताननासासूयं सदरस्मितं सचकितं साकाङ्क्षमालोकते ।।442।।
जैसे
उस (नायिका) ने उत्सुकता के कारण अनपोत सिंह राजा के आकार (आकृति) को चित्रित करके प्रेम की घनिष्टता के कारण यही 'मेरा प्रियतम है' इस प्रकार (तन्मनस्क होने से ) चुम्बनं करके पुनः शीघ्रता से उठ कर और वहाँ से हट कर तेजी से मुख को घुमा कर आनन्दपूर्वक मुस्कराकर सचकित अभिलाषपूर्वक देखने लगी। 1442 ।। अथ व्याधिः
अभीष्टसङ्गमाभावाद् व्याधिः सन्तापलक्षणा । अत्र सन्तापनिःश्वासौ शीतवस्तुनिषेवणम् ।। १९५ ।। जीवितोपेक्षणं मोहो मुमूर्षा धृतिवर्जनम् ।
यत्र क्वचिच्च पतनं त्रस्ताक्षत्वादयोऽपि च ।। १९६ ।।
(८) व्याधि- अभीष्ट के सङ्गम न होने के कारण सन्ताप होना व्याधि कहलाता है। इसमें सन्ताप, निःश्वास, शीतल वस्तुओं का सेवन, जीवन की उपेक्षा, मोह (मूर्च्छा), मरने की इच्छा, धैय-त्याग (अधीर होना) जहाँ कहीं भी गिर जाना, आखें नीची करना
इत्यादि विक्रियाएँ होती है । । १९५-१९६॥
यथा
सङ्गत्यानपोतसिंहनृपतेरासक्तचेतोगतेः
कन्दर्पानलदीपितानि सुतनोरङ्गानि पर्याकुलाः । व्यालिम्पन् हिमबालुकापरिचितैः श्रीगन्धसारद्रवैः सख्यःपाणितलानि पत्रमरुता निर्वापयन्त्योर्मुहुः ।।443।।
जैसे
जब आसक्त चित्त वाले अनपोत सिंह राजा के संसर्ग से सुष्ठु शरीर वाली (नायिका)
की कामाग्नि से उत्तेजित अङ्ग व्याकुल हो गये तब सखियों ने हिमबालुका से, इकट्ठा किये गये चन्दन के द्रवों से और पत्तों की हवा से हथेलियों को बार-बार लेप किया । 1443 ।।
अथ जडता
इदमिष्टमनिष्टं तदिति वेत्ति न किञ्चन ।