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यथा
द्वितीयो विलासः
उद्यानं किमुपागतास्मि सुकृती देवो न किं दर्शितः श्रीसिंहः स्वसखीमुखेन स कथं नेयः स किं वक्ष्यति । सिद्ध्येत्तेन कदा समागम इति ध्यानेन सव्याकुला शय्यायां परिवर्तते श्वसिति च क्षिप्त्वा कपोले करे 11437।।
जैसे
मैं भाग्यशाली क्या उद्यान में आ गयी हूँ, महाराज (श्रीसिंह) क्या दिखलायी दिये ? सखियों के द्वारा वे कैसे लाये जाएँगे, वे क्या कहते हैं, उनसे समागम कब सिद्ध होगा- 'इस प्रकार के ध्यान से व्याकुल (नायिका) शय्या ( पलंग) पर करवटें बदलती है और हाथ पर गाल को रख कर लम्बी-लम्बी श्वासें लेती है ।।437 ।।
अथानुस्मृतिः
अर्थानामनुभूतानां देशकालानुवर्त्तिनाम् । सान्तत्येन परामर्शो मनसः स्यादनुस्मृतिः ।। १८५।। तत्रानुभावा निश्वासो ध्यानं कृतविहस्तता । शय्यासनादिविद्वेष इत्याद्याः स्मरकल्पिताः । । १८६ ।।
आरामे
३. अनुस्मृति - देश काल का अनुसरण करने वाले अनुभूत अर्थों के विषय में अन्त तक मन का परामर्श (अर्थात् देशकाल की अनुवर्तिनी किसी वस्तु को देखकर परिचित वस्तु का ध्यान आ जाना) अनुस्मृति कहलाता है। उसमें नि:श्वास, ध्यान, व्याकुलता, शय्या और आसन इत्यादि से विद्वेष इत्यादि काम- विषयक कल्पित अनुभाव होते हैं ।। १८५-१८६॥
यथा
रतिराजपूजनविधावासन्नसञ्चारिणो
[ २५१ ]
व्यापाराननपोतसिंहनृपते
रागानुसन्धायकान् ।
स्मारं स्मारममुं क्षणं शशिमुखी श्वासैर्विवर्णाधरा
नान्यत् कांक्षति कर्म कर्तुमुचितं नास्ते न शेते क्वचित् ।।438 ।।
जैसे
कामदेव की पूजन विधि वाले उद्यान में सचारियों (सेवकों) से घिरे हुए अनपोत शिङ्गराज के राग के अनुसन्धान करने वाले व्यापारों को उस समय याद करके श्वासों के कारण विवर्ण ओठों वाली चन्द्रमुखी (रमणी) उचित काम को भी नहीं करना चाहती, न स्थिर रहती है और न सो पाती हैं। 438 ।।
अथ गुणकीर्तनम्
तु ।
सौन्दर्यादिगुणश्लाघा गुणकीर्तनमन्त्र