________________
द्वितीयो विलासः
एष
स चिरदृष्टः कथं पुनर्द्रष्टव्यः
अहं पराधीना त्वं पुनः सतृष्णम् ।।)
अत्र देवयानीपारतन्त्र्येण शर्मिष्ठायाः ययातिविषयः पूर्वानुरागः । मानुषपारतन्त्र से पूर्वानुराग जैसे ( मालविकाग्निमित्र २/४ मे) - हे हृदय! मेरा प्रियतम दुष्प्राप्य है। अतः उसके प्राप्त होने की आशा छोड़ दो। अरे! मेरा बाया नेत्र फड़क रहा है। वह बहुत दिनों के बाद देखा गया यह (प्रियतम सामने विद्यमान) है यह किस प्रकार प्राप्तव्य है। हे प्रियतम (इस) पराधीन मुझको अपने प्रति प्रबल अभिलाषा वाली समझो।। 435 ।। (यह श्लोक मालविकाग्निमित्र में भी प्राप्त होता है। शिङ्गभूपाल द्वारा की गयी इसकी व्याख्या से प्रतीत होता है कि इसको उन्होंने किसी ऐसे नाटक से उद्धृत किया है जिसका कथानक देवयानी और शर्मिष्ठा विषयक है ।)
यहाँ देवयानी की परतन्त्रता के कारण शर्मिष्ठा का ययातिविषयक पूर्वानुराग है। मरणान्तमनेकधा ।
एतस्मिन्नभिलाषादि तत्तत्सञ्चारिभावानामुत्कटत्वाद् दशा भवेत् ।। १७७।।
इसमें अभिलाषा से लेकर मरण तक तत्तत् सञ्चारी भावों की उत्कटता के कारण अनेक प्रकार की अवस्थाएँ होती है ।। १७७ ॥
[ २४९ ]
तथापि प्राक्तनैरस्या दशावस्थाः समासतः ।
प्रोक्ताः तदनुरोधेन तासां लक्षणमुच्यते ।। १७८।।
पूर्वानुराग की दश अवस्थाएँ - ( अनेक अवस्थाओं के होने पर ) भी प्राचीन आचार्यों द्वारा इसकी दश अवस्थाओं को संक्षेप में कहा गया है। उनके अनुरूप उनका यहाँ लक्षण किया जा रहा है ।। १७८ ॥
अभिलाषश्चिन्तानुस्मृति गुणसङ्कीर्तनोद्वेगाः
1
सविलापा उन्मादव्याधी जड़ता मृतिश्च ताः क्रमशः ।। १७९ ।। पहले उन (नायक-नायिका) में क्रमशः १. अभिलाष फिर २. चिन्ता उसके बाद ३. अनुस्मृति तत्पश्चात् ४. गुण कीर्त्तन फिर ५. उद्वेग पुनः ६. विलाप तदुपरान्त ७. उन्माद ८. व्याधि ९. जड़ता और १०. मृत्ति (ये देश अवस्थाएँ होती है ) ।। १७९ ॥
तत्राभिलाष:
सङ्गमोपायरचितप्रारब्धव्यवसायतः
।।१८०।।
सङ्कल्पेच्छासमुद्भूतिरभिलाषोऽत्रविक्रियाः ।। १८० ।। प्रवेशनिर्गमी तूष्णीं तद्दृष्टिपथगामिनौ । रागप्रकाशनपराश्चेष्टाः स्वात्मप्रसाधनम् ।। १८१ ।।