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द्वितीयो विलासः
अत्र हंसमुखान्नलगुणश्रवणेन दमयन्त्याः पूर्वानुरागः ।
यहाँ हंस के मुख से नल के गुणों को सुनने से उत्पन्न दमयन्ती का पूर्वानुराग स्पष्ट है। प्रत्यक्षचित्रस्वप्नादौ दर्शनं दर्शनं मतम् ।। १७३ ।।
दर्शन- प्रत्यक्ष, चित्र, अथवा स्वप्न इत्यादि में देखना दर्शन कहलाता है ।। १७३उ. ।। प्रत्यक्षदर्शनेन यथा (रघुवंशे ६ / ६९ ) -
तं वीक्ष्य सर्वावयवानवद्यं न्यवर्ततान्योपगमात् कुमारी ।
नहि प्रफुल्लं सहकारमेत्य वृक्षान्तरं काङ्क्षति षटपदाली ।।431।।
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प्रत्यक्षदर्शन से पूर्वानुराग जैसे (रघुवंश ६ / ६९ मे) -
जिस प्रकार पुष्पित आम्र के वृक्ष को देख कर भ्रमर की पंक्ति दूसरे वृक्ष की चाह नहीं करती उसी प्रकार सर्वाङ्गसुन्दर अज को देख कर वह इन्दुमती दूसरे राजा के पास जाने से रुक गयी ।। 431 ।।
चित्रदर्शनेन यथा (रत्नावल्याम् २.९)
लीलावधूतकमला कलयन्ती पक्षपातमधिकं नः । मानसमैति केयं चित्रगता राजहंसीव 11432 ।।
अत्र चित्रगतरत्नावलीदर्शनाद् वत्सराजस्य पूर्वानुरागः । चित्रदर्शन से पूर्वानुराग जैसे (रत्नावली २ / ९ में ) -
खेल-खेल से कमलों को हिलाने वाली चित्रलिखित (आश्चर्य जनक) वाली हमारी अत्यधिक अनुकूल (पंख फड़फड़ाकर) कहती हुई (लक्षणों) से अपने को दिखलाती हुई यह कौन राजहंसी मन में (मानसरोवर में ) जा रही है ( समा रही है) ।।432 ।।
यहाँ चित्रगत रत्नावली को देखने के कारण वत्सराज का पूर्वानुराग है। स्वप्नदर्शनेन यथा
स्वप्ने दृष्टाकारा तमपि समादाय गतवती भवती ।
अन्यमुपायं न लभे प्रसीद रम्भोरु ! दासाय ।।433 ।। अत्र कामपि स्वप्ने दृष्टवतः कस्यचिन्नायकस्य पूर्वानुरागः । स्वप्नदर्शन से पूर्वानुराग जैसे
स्वप्न में देखे गये आकार वाली आप उस (स्वप्न) को भी लेकर चली गयी। (अब)
मेरे पास अन्य दूसरा उपाय नहीं प्राप्त होता ( दिखलायी पड़ता ) । इसलिए हे केले के खम्भे के समान जंघाओं वाली मुझ सेवक के लिए प्रसन्न होओ। 1433 ।।
यहाँ किसी (रमणी) को स्वप्न में देखने वाले किसी नायक का पूर्वानुराग हैं। यतः पूर्वानुरागोऽयं सङ्कल्पात्मा प्रवर्तते ।