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रसार्णवसुधाकरः
(नायक और नायिका) का परस्पर जो अनुराग अभीष्ट आलिङ्गन इत्यादि के प्राप्त न होने पर प्रकृष्ट होता रहता है (बढ़ता रहता है), उसको विप्रलम्भ जानना चाहिए।
विप्रलम्भ शृङ्गार के प्रकार- वह (विप्रलम्भ) चार प्रकार का कहा गया है- (अ) पूर्वानुराग (आ) मान (इ) प्रवास और (ई) करुण॥१७०३.१७२पू.।।
अत्रायमर्थ:- नायिकानायकयोः प्रागसङ्गतयोः सङ्गतवियुक्तयोर्वा स्वोचितविभावैरनुभावैचोपजायमानः परस्परानुरागोऽन्यतरानुरागो वा स्वाभिलषितालिङ्गनादीनामनवाप्तौ सत्यामुत्पद्यमानैयभिचारिभिरनुभावैश्च प्रकृष्यमाणो विप्रलम्भशृङ्गार इत्याख्यायते। स च पूर्वानुरागादिभेदेन चातुर्विध्यमापद्यते।
इसका तात्पर्य यह है- पहले न मिले हुए या मिलकर बिछुडे हुए नायिका और नायक का यथोचित विभावों और अनुभावों से उत्पन्न परस्पर अनुराग या एक का दूसरे के प्रति अनुराग, अपने द्वारा चाहे गये आलिङ्गन इत्यादि के प्राप्त न होने पर उत्पत्र व्यभिचारी भावों और अनुभावों द्वारा प्रकृष्ट होता हुआ विप्रलम्भ शृङ्गार कहलाता है। वह पूर्वानुराग इत्यादि भेद से चार प्रकार का होता है।
तत्र पूर्वानुरागः___ यत्प्रेम सङ्गमात्पूर्वं दर्शनश्रवणोद्भवम् ।। १७२।। पूर्वानुरागः स ज्ञेयः
(अ) पूर्वानुराग- समागम से पहले दर्शन अथवा श्रवण से उत्पन्न जो प्रेम होता है, वह पूर्वानुराग कहलाता है।
श्रवणं तगुणश्रुतिः। श्रवणेन पूर्वानुरागो यथा (नैषधचरिते ३.७७)
साधु त्वया तर्कितमेतदेव स्वेनानलं यत् किल संश्रयिष्ये । विनामुना स्वात्मनि तु प्रहर्तुं
मृषागिरं त्वां नृपतौ न कर्तुम् ।।430।। श्रवण- श्रवण का तात्पर्य है- उसके गुणों का सुनना।।१७३पू.॥ श्रवण से पूर्वानुराग जैसे (नैषधचरित ३/७७ में)
यही तुमने ठीक विचार किया कि मैं स्वयं ही अनल (नलातिरिक्त, अग्नि) का आश्रय ले लूंगी, किन्तु नल के बिना अपने को समाप्त करने के लिए (अग्नि-अनल का आश्रय लूंगी), न कि तुम्हें नरराज (नल) के सम्मुख झूठा सिद्ध करने के लिए (अनल अर्थात् नल व्यतिरिक्त का आश्रय) ।।43011