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द्वितीयो विलासः
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पुनरेभिरेव भावैः कृतकं मृदुचेष्टितैश्च भयम् ।। इति।। जैसा भरत के नाट्यशास्त्र में कहा गया है
"जो स्वभावज (भय) है उसमें उसी प्रकार सत्त्व से उत्पन्न (सात्त्विक भाव) को करना चाहिए। पुनः इन मृदुचेष्टा वाले भावों से कृतक भय को करना चाहिए।।'
ननु चात्र स्वभावजं कृतकं चेति भयं द्विविधं प्रतीयते। तस्मात् तद्विरोध इति चेद् मैवम्। भरताद्यभिप्रायमजानता पेलवोक्तिमात्रतात्पर्येण न शङ्कितव्यम्। तथाहि लोके माञ्जिष्ठादिदव्यं सहजो रक्तिमा गाढतरं व्याप्नोति, एवं मध्यनीचयोभयं स्वल्पकारणमात्रेऽपि सहजवद् दृश्यत इति सहजमित्युपचर्यते। यथा कृतको लाक्षारसः प्रयत्नसज्जितोऽपि काष्ठादिकमन्तर्न व्याप्नोति, एवमुत्तमगतं भयमिति लौकिककारणप्रकर्षेणापि कृतकवदेव प्रतीयत इति कृतकमित्युपचयत। अन्यथा स्वाभाविकस्य भयस्य रम्यदर्शनऽपि समुत्पत्तिप्रसङ्गात्।
शङ्का- यहाँ (भरत के कथन से) स्वभावज और कृतक- दो प्रकार का भय प्रतीत होता है। इस कारण उस आप के कथन (एक प्रकार के हेतुज भय) से विरोध हो जाता है।
समाधान- ऐसी बात नहीं है। भरत इत्यादि के कथन को न जानते हुए केवल मधुरवचन वाले तात्पर्य से शङ्का नहीं करनी चाहिए। जैसे लोकव्यवहार में मजीठ इत्यादि की लालिमा गाढ़तरता को व्याप्त करती है उसी प्रकार मध्यम और नीच लोगों का भय स्वल्पकारण मात्र से भी सहज के समान दिखलायी पड़ता है इसलिए वह सहज के समान व्यवहार करता है। और जैसे कृतक (लगाया गया) लाक्षारस प्रयत्नपूर्वक सजाने (लगाने) पर भी काष्ठ इत्यादि के भीतर नहीं व्याप्त होता उसी प्रकार उत्तम लोगों का भय भी लौकिक कारणों की प्रकृष्टता होने पर भी कृतक के समान प्रतीत होता है अत: वह कृतक के समान व्यवहार करता है। अन्यथा स्वाभाविक भय का रमणीय दर्शन होने पर भी उपलब्ध होने के कारण (स्वाभाविक होता)।
ननु यदि स्वाभाविकं भयं न विद्यते तर्हि (मालविकाग्निमित्रे १/१२)
द्वारे नियुक्तपुरुषानुमतप्रवेशः सिंहासनान्तिकचरेण सहोपसर्पन् । तेजोभिरस्य विनिवारितदृष्टिपातै
क्यादृते पुनरिव प्रतिवारितोऽस्मि ।।425 ।। (शङ्का)- यदि (उत्तम लोगों में) स्वाभाविक भय नहीं होता तो (मालविकाग्निमित्र ९/१२) में
यद्यपि द्वारपाल ने मुझे यहाँ तक पहुंचा दिया है और मैं इनके सिंहासन के पास रहने वाले कञ्चुकी के साथ ही भीतर भी आया हूँ फिर भी इनके तेज से मेरी आँखें इतनी चकित हो गयी है मानों बिना रोके ही मैं बढ़ने से रोक दिया गया हूँ।।425 ।।