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द्वितीयो विलासः
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दोष के निराकरण के द्वारा कार्य करने का अविमुखीभाव लक्षण वाला लोकोत्तरत्व प्राप्ति के लिए व्यवसाय रूप राम के उत्साह को भावकों की आस्वाद्य योग्यता के अनुसार प्रोत्साहित करता है।
तदष्टावेव विज्ञेयाः स्थायिनो मुनिसम्मताः । तो भरत मुनि द्वारा अनुमोदित आठ स्थायीभाव ही जानना चाहिए॥१५९पू.।।
स्थायिनोऽष्टौ त्रयत्रिंशत् सञ्चारिणोष्ट सात्त्विकाः ।।१५९।। एवमेकोनपञ्चाशद् भावा स्युर्मिलिता इमे ।
एवं हि स्थायिनो भावान् शिङ्गभूपतिरभ्यधात् ।।१६० ।।
सम्पूर्ण भावों की संख्या- आठ स्थायी भाव, तैंतीस सञ्चारीभाव और आठ सात्त्विक भाव- इस प्रकार सभी मिल कर उन्चास भाव होते हैं। इस प्रकार शिङ्गभूपाल ने स्थायी भावों का विवेचन कर दिया।।१५९उ.-१६०॥
अथैषां रसरूपत्वमुच्येते शिङ्गभूभुजा । विद्वान्मानसहंसेन रसभावविवेकिना ।।१६१।।
अब विद्वन्मानसहंस रसभाव का विवेक रखने वाले शिङ्गभूपाल द्वारा इस स्थायीभावों की रसरूपता को बतलाया जा रहा है।।१६१॥
एते च स्थायिनः स्वैः स्वैर्विभावैर्व्यभिचारिभिः । सात्त्विकैश्चानुभावैश्च नटाभिनययोगतः ।।१६२।। साक्षात्कारमिवानीताः प्रापिताः स्वादुरूपताम् ।
सामाजिकानां मनसि प्रयान्ति रसरूपताम् ।।१६३।। रस निरूपण- ये (रति इत्यादि) स्थायीभाव अपने अपने विभाव, व्यभिचारीभाव और सात्त्विक अनुभावों द्वारा (परिपुष्ट होकर) नट के अभिनय कौशल से (व्यञ्जित होकर) साक्षात्कार के समान लाये जाने के कारण आस्वादन रूप को प्राप्त करते हैं और सामाजिकों (दर्शकों) के मन में प्रकृष्टतापूर्वक रसरूप में प्रवाहित होते हैं।।१६२-१६३।।
दध्यादिव्यञ्जनद्रव्यैश्चिञ्चादिभिरथौषधैः । गुडादिमधुरद्रव्यैर्यथायोगं समन्वितैः ।।१६४।। यद्वत्पाकविशेषेण षाडवाख्यो रसः परः । निष्पद्यते विभावाद्यैः प्रयोगेण तथा रसः ।।१६५।।
सोऽयमानन्दसम्भेदो भावकैरनुभूयते ।
जिस प्रकार दही इत्यादि व्यञ्जन पदार्थों, इमली इत्यादि वनस्पतियों तथा गुड़ इत्यादि मधुर पदार्थों के यथोचित, (अनुपात में) मिश्रणों के साथ पाक-विशेष द्वारा (एक