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द्वितीयो विलासः
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धृतेः स्थायित्वमपि तेनैवोदाहृतम् । तथाहि (हितोपदेशे १/१२२)
सर्वाः सम्पत्तयस्तस्य सन्तुष्टं यस्य मानसम् । ___ उपानद्ढपादस्य ननु चर्मास्तृतैव भूः ।।428 ।। इति।
भोज ने धृति के स्थायिभावत्व का भी उदाहरण दिया है। जैसे कि(हितोपदेश १/१२२में )
जिसका मन सन्तुष्ट है उसकी सभी सम्पत्तियाँ उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार जूते से ढके हुए पैर वाले व्यक्ति के लिए पूरी पृथ्वी चमड़े से ढंकी है।।428 ।।
व्याकृतं च- अत्र कस्यचिदुपशान्तप्रकृतेर्धारशान्तनायकस्य अर्थोपगमनमनोनुकूलदारादिसम्पत्तेरालम्बनविभावरूपायाः समुत्पन्नो घृतिस्थायिभावो वस्तुतत्त्वालोचनादिभिरुद्दीपनविभावरुद्दीप्यमानः समुपजायमानस्मृतिमित्यादिभिर्व्यभिचारिभावैर्वागारम्भादिभिश्चानुभावैरनुसज्यमानो निष्पन्नो शान्तो रसः इति सङ्कीर्त्यते। अन्ये पुनरस्य शमं प्रकृतिमामनन्ति। स तु धृतेरेव विशेषो भविष्यतीति।
उन्होंने (भोज ने) व्याख्या भी किया है. यहाँ किसी उपशान्त स्वभाव वाले नायक का आलम्बन विभाव-भूत धन प्राप्त होना, मनोनूकूल पत्नी इत्यादि सम्पत्ति से उत्पन्न धृति (नामक) स्थायिभाव, वस्तुतत्त्व (यथार्थ) के समालोचन इत्यादि उद्दीपन विभावों से उद्दीप्त होता हुआ, उत्पन्न स्मृति, मति इत्यादि-व्यभिचारी भावों के कथन इत्यादि अनुभावों से सुसज्जित होता हुआ शान्त रस कहलाता है। अन्य (कतिपय आचार्य) शम को इसका कारण कहते हैं। वह शम भी धृति का ही विशेष रूप है।
अत्र तावदनुकूलदारसिद्धिजनिताया धृतेस्तु रतिपरतन्त्रत्वमाबाल-गोपालप्रसिद्धम्। ननु वस्तुतत्त्वालोचनादिभिरस्याः स्थायित्वं कल्प्यत इति चेद् न। नैस्स्पृहवासनावासिते भावकचित्ते विभावादिष्वपि नःस्पृह्योन्मेषाद् धृतेर्मूलच्छेद प्रसङ्गात्। अर्थसम्पत्तिजनिता धृतिस्तु अगृनुलक्षणलोकोत्तरत्वप्राप्ति-व्यवसायरूपमुत्साहमनुसरन्ती वीरोपकरणतामाप्नोतीति नात्र धृतेः स्थायित्वम्। धृतिस्थायित्वनिराकरणसंरम्भेणैव नष्टस्तद्विषयः शमस्थायी कुत्रस्त वा लीनो न ज्ञायते।
धृति के स्थायिभावत्व का निराकरण- यहाँ अनुकूल पत्नी की प्राप्ति से उत्पन्न धृति का तो रति की परतन्त्रता बालक कृष्ण के समान प्रसिद्ध है। (शङ्का) वस्तुतत्त्व (यथार्थ) की आलोचना इत्यादि द्वारा इस (धृति) का स्थायिभावत्व कल्पित हो सकता है। (समाधान)ऐसा नहीं है। नि:स्पृहता की वासना से वासित (युक्त) भावक के चित्त में विभाव इत्यादि के होने पर भी नि:स्पृहता के उन्मेष (दीप्तता) से धृति का मूलकारण न होने से स्थायिभावत्व नहीं हो सकता। अर्थ- सम्पत्ति से उत्पन्न अलोभ लक्षण वाली लोकोत्तरता की प्राप्ति का प्रयत्नरूप उत्साह का अनुसरण करती हुई वीरोपकरणता को प्राप्त करती है इसलिए यहाँ