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द्वितीयो विलासः
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उन्हीं (भोज) के द्वारा व्याकृत (व्याख्या) भी की गयी है- यहाँ स्नेहशील (अत्यन्त प्रिय) स्वभाव वाले धीरललित नायक के प्रियालम्बनभाव से उत्पन्न स्नेह नामक स्थायि भाव विषय, सौन्दर्य इत्यादि द्वारा उद्दीप्त होता हुआ, उत्पन्न हुए मति, धृति, स्मृति इत्यादि व्याभिचारिभावों और अनुभावों से प्रशंसा इत्यादि द्वारा उत्पन्न प्रेयरस प्रतीत होता है। रति और प्रीति का यहीं मूलकरण कहा जाता है।
न तावदस्य स्नेहस्य रतिं प्रति मूलप्रकृतित्वं रत्यङ्करदशायामस्यासम्भवात्। सम्भोगेच्छामात्रं हि रतिः सैव प्रेयमानप्रणयाख्याभिस्तिसृभिः पूर्वदशाभिरुत्कटभूता चतुर्थदशायां चित्तद्रवीभावलक्षणस्नेहरूपतामाप्नोति।
स्नेह के स्थायिभावत्व का निराकरण
(किन्तु) इस स्नेह का रति के अङ्कुरित होने की दशा में इस (स्नेह) के असम्भव होने के कारण रति के प्रति मूलकारणता नहीं हो सकती। केवल सम्भोगेच्छा मात्र ही रति है, जो प्रेय, मान और प्रणय नामक तीन पूर्व दशाओं से उत्कट होकर चतुर्थ दशा में चित्त के द्रवीभूत लक्षण वाली स्नेहरूपता को प्राप्त करती है।
तथा च भावप्रकाशिकायाम् (१६/१७)
इयमङ्कुरिता प्रेम्णा मानात् पल्लविता भवेत् ।
सकोरका प्रणयत: स्नेह्मत् कुसुमिता भवेत् ।।इति। जैसा भावप्रकाशिका (१६/१७) में कहा गया है
यह (रति) प्रेम के द्वारा अङ्कुरित होती है और मान से पल्लवित होती है। अन्त में प्रणय के द्वारा कली रूप में होकर स्नेह से विकसित (प्रफुल्लित) हो जाती है।
अतोऽस्मिन्नुदाहरणे स्नेहस्य रतिरूपेणैवास्वाद्यत्वं, न पृथक्स्थायित्वेन। एवञ्च स्नेहस्य रतिभेदत्वकथनात् प्रेयोरसस्यापि शृङ्गारादपृथक्त्वमर्थसिद्धम्।
__ इसलिए उपर्युक्त उदाहरण में स्नेह का रति रूप से ही आस्वादन होता है, अलग से स्थायिभाव के रूप में नहीं और इस प्रकार स्नेह का रति के भेद के रूप में कथन होने से प्रेयरस का भी शृङ्गार रस से अलग न होना स्वत: सिद्ध हो जाता है।
तत्र स्नेहो रतेर्भेदो स्त्रीपुंसेच्छात्मकत्वतः।
अन्ये पोषासहिष्णुत्वान्नैव स्थायिपदोचिताः ।।१५८।। उसमें स्नेह स्त्री और पुरुष का इच्छात्मक स्नेह रति का भेद है।।१५८।।
अन्य (गर्व, धृति और मति) के स्थायिभावत्व का खण्डन- (भोज द्वारा कहे गये स्नेह से) अन्य (गर्व, धृति और मति) की भी पुष्टता को वहन करने की शक्ति न होने के कारण स्थायिभाव नाम (पद) से कहना उचित नहीं है।।१५८उ.।।