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रसार्णवसुधाकरः
इत्यादिषु, कथं भयोत्पत्तिरितिचेद, उच्यते-भीषणास्त्रिविधा आकृतिभीषणा क्रियाभीषणा माहात्म्यभीषणाचेति। तत्राकृतिभीषणा रक्षपिशाचादयः, क्रियाभीषणा वीरभद्रपरशुरामशार्दूलवृकादयः, माहात्म्यभीषणा देवनरदेवादयः। तदत्र माहात्म्यभीषणराजदर्शनाद् भयं नाट्याचार्यस्य जायते, न पुनः स्वभावात् । तदेतद् निःशंसयं कृतम् 'अहो दुरासदो-राजमहिमा' (मालविकाग्निमित्रे १/११ श्लोकात्पूर्वम्) इति पूर्ववाक्यं प्रथ्नता तेनैव कालिदासेनेति सर्व कल्याणम् ।
इत्यादि में भय की उत्पत्ति कैसे होती है?
समाधान- भीषणता तीन प्रकार की होती है- आकृति से भीषणता, क्रिया से भीषणता और माहात्म्य से भीषणता। उनमें राक्षस पिशाच इत्यादि आकृति से भय उत्पन्न करने वाले है। वीरभद्र, परशुराम, सिंह बाघ इत्यादि कार्य से भयभीत करने वाले हैं। देवता राजा इत्यादि माहात्म्य से भयभीत करने वाले हैं। यहाँ (इस श्लोक में) नाट्याचार्य (हरदत्त) का भय माहात्म्य से भीषण राजा को देखने से उत्पन हुआ है, स्वभाव से नहीं। इसीलिए नि:सन्देह रूप से 'अहा! राजा की महिमा दुर्निवार्य होती है' (मालविकाग्निमित्र १/११ श्लोक से पूर्व) इस प्रकार पूर्ववाक्य कहने वाले कालिदास ने 'सबका कल्याण हो'- यह भी कहा है।
भोजेनोक्ता स्थायिनोऽन्ये गर्वः स्नेहो धृतिर्मतिः ।
स्थास्तुरेवोद्धतप्रायः शान्तोदात्तरसेष्वपि ।।१५७।।
भोज के मत में गर्व, स्नेह, धृति और मति का स्थायिभावत्व- भोज के द्वारा उद्धत, प्रेय, शान्त और उदात्त रसों में क्रमश: गर्व, स्नेह, धृति और मति ये चार स्थायिभाव होते हैं।।१५७॥
तथाहि- इदं खलु तेनैव प्रेयोरसप्रवादिना महाराजेनोदाहृतम्
यदेव रोचते मह्यं तदेव कुरुते प्रिया ।।
इति वेद्मि न जानामि तत् प्रियं यत् करोति सा ।।426।।
जैसे कि प्रेयरस का अभिधान करने वाले उसी महाराज (भोज) के द्वारा (स्नेह) उदाहरण के रूप में दिया गया है
जो मुझे अच्छा लगता है वही (मेरी) प्रिया करती है- इतना ही मैं जानता हूँ। किन्तु यह नहीं जानता कि वह कौन सा प्रिय है जिसको वह करती है।।426।।
तेनैव व्याकृतं च- अत्र वत्सलप्रकृतेर्षीरललितनायकस्य प्रिया-लम्बनभावादुत्पन्न: स्नेहः स्थायिभावो विषयसौन्दर्यादिभिरुदीप्यमानः समुपजायमानैतिधृतिस्मृत्यादिभिव्यभिचारिभावैरनुभावैश्च प्रशंसादिभिः संसृज्यमानो निष्पन्नःप्रेयोरस इति प्रतीयते। रतिप्रीत्योरयमेव मूलप्रकृतिरिष्यत इति।