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रसार्णवसुधाकरः
में स्थित भय का अपलाप कैसे अभिधेय (कथनीय) होगा। उसके अपलाप होने पर भी विषभक्षण की सुकरता होने के कारण उस कार्य के निर्वाह में बढ़े हुए शङ्कर के प्रभाव का उत्कर्ष कैसे प्रणाम करने योग्य (प्रशंसनीय) होगा।
हेतुजा इतरे प्रोक्ते भये सोडलसुनुना । कृत्रिमं तूत्तमगतं गुर्वादीन् प्रत्यवास्तवम् ।।१५२।। विभीषिकार्थं बालादेवित्रासिकमित्युभे ।
भयविषयक सङ्गीतरत्नाकर का मत
सोड्वल के पुत्र (सङ्गीतरत्नाकर के कर्ता शारङ्गदेव) ने दूसरों द्वारा कहे गये भय में हेतुज और कृत्रिम-इन दो भेदों को माना है। उसमें हेतुज तो अन्वर्थ वाला है (अर्थात् किसी कारण से उत्पन्न भय हेतुज भय कहलाता है) और दूसरा कृत्रिम (भय) गुरु इत्यादि के प्रति अवास्तविक भय होता है, बालक इत्यादि का भय वित्रासितक हेतुज कहलाता है।।१५२-१५३पू.॥
तत्रान्त्यमन्तर्भूतं स्याद् घोरश्रवणजे भये ।।१५३।। भिक्षुभल्लूकचोरादिविद्युत्क्रव्यादकल्पितम् । आद्यं तु युक्तिकक्ष्यायां भयकक्ष्यां न गाहते ।।१५४।। गुर्वादिसन्निधौ यस्मान्नीचैःस्थित्यादिसूचितम् । भावो विनय एव स्यादथ स्यान्नाटके यदि ।।१५५।। अवहित्थतया तस्य भयत्वं दूरतो गतम् ।
अतो हेतुजमेवैकं भयं स्यादिति निश्चयः ।।१५६।। सङ्गीतरत्नाकर के मत का खण्डन और अपने मत का प्रतिष्ठापन
उसमें अन्तिम वित्रासित बालक इत्यादि का भय भिक्षु, भालू, चोर इत्यादि की सूचना से उत्पन्न होने के कारण (शिङ्गभूपाल द्वारा २.१४९ में निरूपित) घोर श्रवणजभय में अन्तर्भूत हो जाता हैं दूसरा कृत्रिम भय नाटक में गुरु इत्यादि के समीप अपनी नीच स्थिति (विनय इत्यादि) से सूचित होने वाला भाव विनय होता है। मनोभाव के गोपन (अवहित्था) के कारण उसकी भयता नहीं होती। अत: निश्चित रूप से हेतुज भय एक ही प्रकार का होता है।।१५३उ.-१५६॥
इस स्थल को सङ्गीतरत्नाकर में इस प्रकार कहा गया है- स्वहेतुजा: कृत्रिमाश्च वित्रासिकमित्यपि, भयानकस्विधा। तत्र प्रथमोऽन्वर्थनामकः। कृत्रिमास्तूत्तमङ्गतो गुर्वादीन् प्रत्यवास्तवः, विभीषिकाओं बालादेर्वित्रासिकम् दूष्यते। (१४८७-८८)।
तथा च भारतीये (नाट्यशास्त्रे ६.७१)
एतत् स्वभाजं स्यात् सत्त्वसमुत्थं तथैव कर्त्तव्यम् ।