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रसार्णवसुधाकरः
स्त्रीगत विभाव से शोक (जैसे कुमारसम्भव ४/४ में)
(कामदेव की मृत्यु का निश्चय हो जाने पर) वह अत्यन्त विह्वल होकर बालों को बिखेर करके पृथ्वी पर लौटती हुई विलाप करने लगी जिससे उसके स्तन धूल से धूसरित हो उठे। उसके विलाप को सुन कर वह वनस्थली भी उसके इस दुःख में समान दुःख वाली जैसी बन गई ।। 417 ।।
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अथ जुगुप्सा
अहृद्यानां पदार्थानां दर्शनश्रवणादिभिः ।
सङ्कोचनं यन्मनसः सा जुगुप्तात्र विक्रिया ।। १४६।। नासापिधानं त्वरिता गतिरास्यविकूणनम् । सर्वाङ्गधूननं कुत्सा मुहुनिष्ठीवनादयः ।। १४७।।
(७) जुगुप्सा - अप्रिय वस्तुओं के देखने, सुनने इत्यादि से मन का सङ्कोच जुगुप्सा कहलाता है। उसमें नाक बन्द करना, तीव्रगमन, मुख विचकाना, सभी अङ्गों का धूनना, घृणा, बार-बार थूकना इत्यादि विक्रियाएँ होती हैं ।। १४६ - १४७॥ अहृद्यदर्शनाद् यथा ( मालतीमाधवे ५/१७)
निष्टापस्विद्यदस्थ्नः क्वथनपरिणमन्मेदसः प्रेतकायान्
कृष्ट्वा संसक्तधूमानपि कुणपभुजो भूयसीभ्यांश्च ताभ्यः । उत्पक्वत्रंसि मांसप्रचयमुभयतः सन्धिनिर्मुक्तमारा
देते निश्श्रूष्य जङ्घानलकमुदयिनीर्मज्जधाराः पिबन्ति ।।418 ।। अत्र जङ्घानिश्श्रूषणमज्जधारापानादिजनिता पिशाचविषया माधवस्य जुगुप्सारूपा कुणपभुज इत्यनेन व्यज्यते ।
अप्रिय वस्तु को देखने से जैसे (मालतीमाधव ५ /१७ में ) -
शव को खाने वाले ये पिशाच प्रचुर चिताओं से अच्छी तरह एक बार ताप से जिनसे रुधिर गिर रहे हैं और अच्छी तरह पकाने से जिनसे चरबी गिर रही है, धुएँ से व्याप्त ऐसे शव के शरीरों को भी खींच कर उत्कृष्ट पापयुक्त और गिरने वाले मांस से सम्बद्ध, ताप से हिलते हुए मूल और अग्रभाग में अस्थिसंयोग स्थानों से पृथग्भूत (जॉघ) के काण्ड को समीप में शरीर से अलग कर निकलती हुई मज्जा की धातुओं को पी रहे हैं।।418 ।।
यहाँ जङ्घा चूसने और मज्जा की धारा को पीने इत्यादि से उत्पन्न पिशाच - विषयक माधव की जुगुप्सा रूप घृणा 'शव खाने वाला' इस कथन से व्यञ्जित होती है।
श्रवणाद् यथा
मेदोमज्जाशोणितैः पिच्छिलेऽन्तःत्वक्प्रच्छन्ने स्नायुबद्धास्थिसन्धौ ।