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द्वितीयो विलासः
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भृत्यादि (भृत्य, मित्र और पूज्य) - विषयक (क्रोध, कोप तथा रोष) - इन तीनों से सम्बन्धित कोप में तत्तत् कोप के अनुकूल चेष्टाएँ होती है ।। १३६उ. ।। अथ रोष:
मिथः स्त्रीपुंसयोरेव रोषः
रोष - युवक और युवती में परस्पर रोष होता है। स्त्रीगोचरः पुनः ।
प्रत्ययावधिरत्र स्युर्विकाराः कुटिलेक्षणम् ।। १३७।। अधरस्फुरणापाङ्गरागनिःश्वासितादयः
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स्त्रीगोचर पुरुष का रोष- पुरुष का स्त्रीगोचर (स्त्रीविषयक) रोष विश्वास पर्यन्त रहने वाला होता है। इसमें कुटिलतापूर्वक देखना, ओठों का फड़कना, आँखों का लाल हो जाना, नि:श्वास इत्यादि विकार होते हैं ।। १३७ -१३८५. ।।
यथा वीरानन्दे
भ्रूभङ्गभिन्नमुपरञ्जितलोचनान्त
माकम्पिताधरमतिश्वसितानुबन्धम् ।
पत्युर्मुखं क्षितिसुता परिलोकयन्ती
काराविमुक्तिरपि कष्टतरेति मेने | 1409 ।।
अत्र रावणकारागारनिवासशङ्कया जनितः सीताविषयो रामस्य रोषो भ्रूभङ्गादिभिरनुभावैर्व्यज्यते ।
जैसे वीरानन्द में
पति (राम) के भ्रूभङ्ग के कारण प्रचण्ड, रक्त हुए नेत्रप्रान्त वाले, काँपते हुए ओठों वाले और लम्बी-लम्बी श्वासों वाले मुख को देखती हुई सीता ने (रावण के) जेल में बन्द होने के दुःख की अपेक्षा अधिक कष्टकर माना । । 409 ।।
यहाँ रावण के जेल में (सीता के) निवास करने के कारण शङ्का से उत्पन्न सीता
विषयक राम का रोष भ्रूमङ्ग इत्यादि अनुभावों से व्यञ्जित होता है । प्रत्ययावधित्वं यथा (वेणीसंहारे २/१३)दिष्ट्यार्धश्रुतविप्रलब्धजनित क्रोधादहं नो गतो दिष्ट्या नो परुषं रुषार्धकथने किञ्चिन्मया व्याहृतम् । मां प्रत्याययितुं विमूढहृदयं दृष्ट्या कथान्तं गता मिथ्यादूषितयानया विरहितं दिष्ट्या न जातं जगत् । 1410 ।।
अत्र स्वप्नवृत्तान्तश्रवणभ्रान्तिजनितस्य भानुमतीविषयस्य सुयोधनस्य रोषस्य