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रसार्णवसुधाकरः
अत्र मृगाणां सन्त्रासनयष्टिसमाघ्राणनलौल्येन मुनीनां हासः । चञ्चलता से हास जैसे ( अनर्घराघव २.२० मे) -
अग्निगृह में बलि के लिए रखे गये तण्डुलों को हरिण खा जाते हैं, इस पर मुनिस्त्रियाँ खीझकर उनको डराने के लिये दण्ड उठाती हैं, परन्तु हरिण इतने हिलेमिले हैं कि वे उस दण्ड को सूँघने की इच्छा करने लगते हैं, जिसे देखकर मुनिगण उन मृगों की ढिठाई पर हँस देते हैं ।।394 ।।
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यहाँ मृगों के डराने के डण्डे की सूँघने की चञ्चलता के कारण मुनिजनों का हास है। परानुकरणेन यथा (भोजस्य सरस्वतीकण्ठाभरणेऽपि उद्धृतम्, १४२) - पि पि प्रिय ! स स स्वयं मु मु मुखासवं देहि मे
तत त्यज दुदु द्रुतं भ भ भाजनं काञ्चनम् । इति स्खलितजल्पितं मदवशात् कुरङ्गीदृशः सितवे सहचारिभिरध्यैयत ।।396।।
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परानुकरण से हास जैसे (सरस्वतीकण्ठाभरण में भी उद्घृत, १४३)'हे प्रिय ! मुझे अपने मुख की सुरा दो, इस स्वर्णनिर्मित (सुरा के) पात्र को छोड़ो इस प्रकार मृगनयनी (स्त्रियों) की मद के कारण स्खलित वाणी को सखियों ने भोर में ही हँसी के लिए
कहा । 1396 ।।
अथोत्साहः
शक्तिधैर्यसहायाद्यैः फलश्लाघ्येषु कर्मसु ।। १२४।। सत्वरा मानसी वृत्तिरुत्साहस्तत्र विक्रियाः । कालाद्यवेक्षणं धैर्यं वागारम्भादयोऽपि च ।। १२५ ।।
(३) उत्साहः
शक्ति, धैर्य, सहायक इत्यादि से प्रशंसनीय फल वाले कार्यों में मन- विषयक
द्रुतगामी प्रवृत्ति उत्साह कहलाती है । उसमें समय इत्यादि का ध्यान देना, धैर्य, वागारम्भ इत्यादि विक्रियाएँ होती हैं ।। १२४उ. - १२५ ॥
सहजाहार्यभेदेन स द्विधा परिभाष्यते ।
उत्साह के भेद - सहज और आहार्य भेद से वह (उत्साह) दो प्रकार का कहा गया है ।। १२६५. ।।
शक्त्या सहजोत्साहो यथा
अथ महेन्द्रं गिरिमारुरोह
वारानिधिं लङ्घयितुं हनूमान् ।