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रसार्णवसुधाकरः --
यहाँ मृगया में अन्तरित (छिपी हुई दशरथ की प्रिय-विषयक रति) उनकी प्रियाओं के खुले हुए केशपाश की समानता करने वाले मयूरों के पूँछों को देखने के कारण उत्पन्न हो रही है।
आध्यात्म स्वात्मप्रामाण्यमात्रम् । तेन यथा (शाकुन्तले ५/३१)-.
कामं प्रत्यादिष्टां स्मरामि न परिग्रहं मुनेस्तनयाम् ।
बलवत्तु दूयमानं प्रत्यायतीव मे चेतः ।।374।। अत्र दुष्यन्तस्य निजचित्तसन्तापप्रत्यये शापविस्मृतायामपि शकुन्तलायां रतिः। आध्यात्म का अर्थ है स्वात्मप्रमाण। उस (आध्यात्म) से जैसे (अभिज्ञानशाकुन्तल ५/३१ में)
भले ही (अपने द्वारा) मुनि की दुरदुराई गयी पुत्री पत्नी के रूप में याद नहीं आती, लेकिन बहुत उद्विग्न हो रहा मेरा दिल मुझे (उसे परिग्रह होने का) विश्वास दिला-सा रहा है।।374।।
यहाँ दुष्यन्त का अपने चित्त के सन्ताप को शाप के कारण विस्मृत हुई भी शकुन्तलाविषयक रति है।
विषया शब्दादयः। तत्र शब्देन यथा
सखि! मे नियतिहतायास्तद्दर्शनमस्तु वा मा वा ।
पुनरपि स वेणुनादो यदि कर्णपथे पतेत्तदेवालम्।।375 ।। अत्र प्रागदृष्टेऽपि कृष्णे वेणुवादेन कामवल्या रतिः । विषय का अर्थ है 'शब्द' इत्यादि। शब्द से रति जैसे
हे सखी! मुझ अभागिन को उस (कृष्ण) का दर्शन हो या न हो फिर भी यदि उनके बाँसुरी का स्वर मेरे कानों में पड़ जाय तो वही बहुत है।।375।।
___ पहले कभी कृष्ण को न देखने पर भी बाँसुरी के सुनने के स्वर से कामवली की कृष्ण के प्रति रति है।
स्पर्शन यथा (विक्रमोर्वशीये १.११)
यदयं रथसंक्षोभादंसेनांसो रथाङ्गसुश्रोण्याः ।
स्पृष्टः सरोमविक्रियमङ्कुरितं मनोभवेनेव ।।376।। स्पर्श से रति जैसे (विक्रमोर्वशीये १.११में )