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रति है।
द्वितीयो विलासः
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यहाँ देवयजन, जनक इत्यादि के सम्बन्ध के गौरव के कारण से सीता में राम की
अथाभिमानः
इदमेव मम प्रियं नान्यदित्यभिप्रायोऽभिमानः । तेन यथा ( मालतीमाधवे) १/३४)
जगति जयिनस्ते भावा नवेन्दुकलादयः प्रकृतिमधुराः सन्त्येवान्ये मनो मदयन्ति ये । मम तु यदीयं याता लोके विलोचनचन्द्रिका नयनविषयं जन्मन्यस्मिन् स एव महोत्सवः 11371।। अत्र माधवस्य विलोचनचन्द्रिकानयनमहोत्सवाद्याभिमानेनेतररमणीवस्तुनैस्स्पृहयेन च मालत्यां रतिः ।
अभिमान- यह ही मेरा प्रिय है, दूसरा नहीं - यह अभिप्राय अभिमान कहलाता है।
उस अभिमान से जैसे रति ( मालतीमाधव २१.३७ मे) -
लोक में अत्यधिक प्रसिद्ध नवीन चन्द्रकला इत्यादि जयशील हैं। स्वभाव से सुन्दर और भी पद हैं जो मन को प्रसन्न करते हैं । परन्तु जो यह नेत्र - चन्द्रिका (मालती) लोक में मेरे नेत्र के विषय को प्राप्त हो गयी है, जन्मशाली पदार्थों में एक वही सौख्य का कारण है ।। 372 ।। यहाँ माधव की विलोचन चन्द्रिका, नयन महोत्सव इत्यादि अभिमान से अन्य रमणी रूपी वस्तु से निस्स्पृहता के कारण मालती में रति है ।
उपमया यथा (रघुवंशे ९/६७)
अपि तुरगसमीपादुत्पतन्तं मयूरं न स रुचिरकलापं बाणलक्ष्यीचकार । सपदि गतमनस्कश्छिन्नमाल्यानुकीर्णैरतिविगलितबन्धे केशहस्ते प्रियायाः 11373।।
अत्र मृगयान्तरितापि दशरथस्य प्रियाविषया रतिस्तदीयंकेशकलापसदृशकेकिकलापदर्शनेनोत्पद्यते ।
उपमा से रति जैसे (रघुवंश ९/६७) में
कभी-कभी राजा दशरथ के घोड़े के पास रंग-बिरंगी चमकीली पूछों वाले मयूर भी उड़ जाया करते थे पर वे उन पर बाण नहीं चलाते थे क्योंकि उन्हें देखकर दशरथ जी को विविध प्रकार के सुन्दर पुष्पों से सुशोभित और सम्भोग- काल में अपनी प्रियाओं के खुले हुए केशपाशों का स्मरण होता था, इसलिए उन्हें उनको मारने का ध्यान ही नहीं रहता था । 1 373 ।।