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द्वितीयो विलासः
।। इति सञ्चारिभावाः ।।
इस प्रकार दिगन्तरों में प्रसारित कीर्त्ति वाले शिङ्गभूपाल द्वारा सभी सञ्चारीभाव विशद रूप से निरूपित किये गये हैं ।। १०३॥
।। सच्चारी भाव समाप्त । ।
अथ स्थायिनः
सजातीयैर्विजातीयैर्भावैयें
त्वतिरस्कृताः ।
क्षीराब्धवन्नयन्त्यन्यान् स्वात्मत्वं स्थायिनो हि ते ।। १०४ ।। स्थायी भाव- सजातीय और विजातीय भावों के द्वारा अतिरस्कृत जो दूसरों को क्षीरसागर के समान आत्मीय बना लेते हैं, वे स्थायी भाव कहलाते हैं ॥ १०४ ॥
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भरतेन च ते कथिता रतिहासोत्साहविस्मयक्रोधाः ।
शोकोऽथ जुगुप्सा भयमित्यष्टौ लक्ष्म वक्ष्यते तेषाम् ।। १०५ ।। स्थायी भावों की संख्या - आचार्य भरत के द्वारा ये आठ स्थायी कहे गये हैं१. रति, २. हास ३. उत्साह ४. विस्मय ५. क्रोध ६. शोक ७. जुगुप्सा और ८. भय। उनका लक्षण कहा जा रहा है ।। १०५ ॥
तत्र रति:
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यूनोरन्योन्यविषया स्थायिनीच्छा रतिर्भवेत् । निसर्गेणाभियोगेन संसर्गेणाभिमानतः ।। १०६ ।। उपमाध्यात्मविषयैरेषा स्यात् तत्र विक्रियाः । कटाक्षपात भूक्षेपप्रियवागादयो मताः ।।१०७॥
१. रति- दो युवकों (युवक और युवती ) की स्वभाव से, (मन के) लगाव से, संसर्ग से अभिप्राय से, उपमा से, आध्यात्म से और विषयों से जो स्थाई इच्छा होती है, वह रति कहलाती है। इसमें कटाक्षपात् भ्रूक्षेप, प्रिय वाणी इत्यादि विक्रियाएँ कही गयी हैं।।१०६-१०७॥
तत्र निसर्गेण रतिर्यथा ( कुमारसम्भवे ५.८२)अलं विवादेन यथा श्रुतं त्वया तथाविधस्तावदशेषमस्तु सः । ममात्र भावैकरसं मनः स्थिरं कामवृत्तिर्वचनीयमीक्षते ।।369 ।।
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