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इति वागारम्भेण व्यज्यते ।
यहाँ हितोपदेश का अनादर करने से बढ़े हुए प्रतिनायक का गर्व 'जड़ से उखड़ जाता है' इस कथन से शान्ति व्यञ्जित होती है।
शबलत्वं तु भावानां सम्मर्दः स्यात् परस्परं ।। १०२ । शबलता - अनेक भावों की परस्पर भीड़ शबलता कहलाती है ।। १०२उ . ।।
यथा
को वा जेष्यति सोमवंशतिलकानस्मान् रणप्राङ्गणे! (गर्वः ) -
रसार्णवसुधाकरः
हन्तास्मासु पराङ्मुखो हतविधिः
(विषादावसूये)
(चिन्ता) -
अस्मत्पूर्वनृपानसौ निहतवान्
(स्मृत्यमर्षौ )
किं दुर्गमध्यास्महे ।
दीर्घान् धिगस्मज्जनान् ।
(निर्वेदः ) -
किं वाक्यैरनपोतशिङ्गनृपतेः सेवैव कृत्यं परम् 11367।। जैसे - चन्द्र वंश के तिलक हम लोगों को युद्धस्थल पर कौन जीतेगा ? (गर्व) ओह हम लोगों के प्रति यह दुर्भाग्य विमुख हो गया है। (विषाद और असूया)
क्या (हम लोग ) किले में छिप जाएँ। (चिन्ता) - (शिङ्गराजा ने ) हमारे पूर्ववर्ती राजाओं को मार डाला है। (स्मृति और गर्व ) - हमारे लोगों को धिक्कार है । (निर्वेद) - कहने से क्या लाभ? (हम लोगों के लिए इस ) अनपोत (नामक) शिङ्ग राजा की सेवा ही सबसे बड़ा करणीय कार्य है || ३६७॥
अत्र गर्वविषादासूयाचिन्तास्मृत्यमर्षनिर्वेदमतीनां सम्मर्दो भावशाबल्यमित्युच्यते । यहाँ गर्व, विषाद, असूया, चिन्ता, स्मृति, अमर्ष, निर्वेद, मति- इन भावों की एकत्र भीड़ भावशाबल्य है, यह कहा गया है।
दिगन्तरालसञ्चारकीर्त्तिना
शिङ्गभूभुजा । एवं सञ्चारिणः सर्वे सप्रपञ्चं निरूपिताः ।। १०३।।