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द्वितीयो विलासः
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वत्याः सम्प्रयोगे रत्युत्पत्तिः प्रतीयते इति।
उन्ही (भोज) ने व्याख्या भी किया है- यहँ तर्जन, छोड़ने, मना करने के मन्दमन्द प्रयोग (कहने) से मानवती रमणी की सम्भोग में रति का उत्पन्न होना प्रतीत होता है।
सम्प्रयोगस्य शब्दादिष्वन्तर्भावान्न तन्मतम् ।।१०८।। शिङ्गभूपाल का मत
सम्प्रयोग का शब्द इत्यादि में अन्तर्भाव होने से उस मत को शिङ्गभूपाल नहीं मानते ।।१०८उ.।।
तथा हि- उक्तोदाहरणे मानवतीजल्पितस्य शब्दरूपत्वमेव। क्योंकि उक्त उदाहरण में मानवती रमणी का कथन शब्दरूपता वाला ही है। तथा च (गाथासप्तशत्याम् १.२२)
आअरपसरिओटुं जघडिअणासं अचुम्बिअणिडाकं । वण्णघिअलिप्पमुहिए तीए परिचुम्बणं हमरिसो ।।381।। (आदरप्रसारितोष्ठमघटितनासमचुम्बितनिटिलम् । वर्णघृतलिप्तमुखायास्तस्याः परिचुम्बनं स्मरामः ।।)
इत्यादिषु चुम्बनादीनामपि स्पर्शेष्वन्तर्भावः। और वैसे हीं
वर्ण रूपी घृत से युक्त (वर्णों का उच्चारण करने वाले) मुख वाली उस (प्रियतमा) के आदर से फैलाये गये ओंठ को, अव्यस्त नासा (नाक) को, चुम्बन न किये गये मस्तक को, पूर्णतया किये गये चुम्बन को हम याद कर रहे हैं।।381 ।।
इत्यादि में चुम्बन इत्यादि का स्पर्श में अन्तर्भाव है।
अङ्करपल्लवकलिकाप्रसनफलभोगभागिय क्रमतः ।
प्रेमा मानः प्रणयः स्नेहो रागोऽनुराग इत्युक्तः ।।१०९।।
रति के अवस्थान्तर- जिस प्रकार (बीज से) अङ्कुर, पल्लव, कली, पुष्प और फल होता है उसी प्रकार (रति से) (१) प्रेमा (२) मान (३) प्रणय (४) स्नेह (५) राग और (६) अनुराग होता है- ऐसा कहा गया है।।१०९॥
अथ प्रेमा___स प्रेमा भेदरहितं यूनोर्यद् भावबन्धनम् ।
(१) प्रेमा- युवकों (युवक और युवती) का (परस्पर) भेदरहित भावबन्धन प्रेमा कहलाता है।।११०॥