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द्वितीयो विलासः
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प्रौढ़ स्नेह जैसे (मेघदूत २/४९ मे) -
हे काली-काली आँखों वाली, पहचान के इस चिह्न के देने से मुझे सकुशल जान कर लोकापवाद के कारण मेरे ऊपर अविश्वास मत करना। (कुछ लोगों ने) प्रेम को विरह में, किसी कारण से नष्ट होने वाला कहा है। किंतु (विरह का) वह स्नेह, उपभोग न होने से अभिलषित पदार्थ के विषय में बढ़े हुए आस्वाद से युक्त होते हुए प्रेमपुञ्ज के रूप में परिणत हो जाता है ।।387 ।।
यहाँ प्रोषित यक्ष के प्रति स्नेह से उत्पन्न, उसके अन्य रमणी के साथ आसङ्ग की शङ्का से प्रिया का क्लेश 'मेरे ऊपर अविश्वास मत करना' इस आश्वासन से व्यञ्जित होता है।
अथ मध्यमः
इतरानुभवापेक्षा सहते यः स मध्यमः ।
मध्यम स्नेह - जिसे (स्नेह में) दूसरे के अनुभव की अपेक्षा का सहन किया जाता है, वह मध्यम स्नेह होता है ।। ११५पू.।।
यथा (रत्नावल्याम् ३ / १९)
किं देव्याः कृतरोषवेगमुषितस्निग्धस्मितं तन्मुखं किं वा सागरिका क्रमोद्गतरुषा सन्तर्ज्यमानां तया । बध्वानीतमितो वसन्तकमहं किं चिन्तयाम्यद्य भोः सर्वाकारकृतव्यधः क्षणमपि प्राप्नोति नो निर्वृतिम् ।।388 ।।
अत्र सागरिकानुभवापेक्षया राजस्नेहो वासवदत्तायां मध्यमः ।
मध्यम स्नेह जैसे (रत्नावली ३/१९ मे) -
क्या मैं महारानी के किये गये अत्यन्त क्रोध से चुरायी गयी स्निग्ध मुस्कान वाले उस मुख को सोचूँ ! क्या बढ़े हुए क्रोध वाली उस (महारानी वासवदत्ता) से डरी हुई सागरिका को सोचूँ ! क्या बाँध कर यहाँ से अन्यत्र ले जाये गये विदूषक वसन्तक (प्रियमित्र) को सोचूँ । हाय ! इस प्रकार सम्पूर्ण ढंग से पीड़ित मैं (उदयन) क्षण भर को भी शान्ति नहीं रह पा रहा हूँ ।। 388 ।। यहाँ सागरिका-विषयक अनुभव की अपेक्षा के कारण वासवदत्ता के प्रति राजा का स्नेह मध्यम है।
अथ मन्दः
द्वयोरेकत्र मानादौ तमन्यत्र करोति यः ।। ११५ ।। नैवापेक्षां न चोपेक्षां स स्नेहो मन्द उच्यते ।
मन्द स्नेह - एक स्थान पर रहने वाले दोनों (नायक और नायिका) को मान इत्यादि में जो उसको अलग-अलग कर देता है और जिसमें न तो अपेक्षा ही रहती है और