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रसार्णवसुधाकरः
न उपेक्षा ही, वह मन्द स्नेह कहलाता है।।११५उ-११६पू.।।
यथा (मालविकाग्निमित्रे ३/२३)- . .
मन्ये प्रियाहृतमनास्तस्याः प्रणिपातलङ्घनं सेवाम् ।
एवं हि प्रणयवती सा शक्यमुपेक्षितुं कुपिता ।।389।। अत्र कुपितायामिरावत्यामुपेक्षापेक्षयोरभावस्य कथनेन राज्ञः स्नेहस्तद्विषयो
मन्दः ।
मन्द स्नेह जैसे (मालविकाग्निमित्र ३/२३ में)
प्रियतमा मालविका ने मेरे हृदय को आकृष्ट कर लिया है अत एव इरावती की अप्रसन्नता को मैं उपकार ही मान रहा हूँ क्योंकि वह इरावती क्रुद्ध है उसकी उपेक्षा करके भी कुछ समय तक रहा जा सकता है।।389 ।।
यहाँ कुपित इरावती के प्रति उपेक्षा तथा अपेक्षा दोनों के अभाव के कथन से राजा का तद्विषयक स्नेह मन्द स्नेह है।
आदिशब्दादतिपरिचयादयः । यथा (शीलाभट्टारिकायाः इदमिति शार्ङ्गधरपद्धतौ उद्धृतम् )
यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैत्रक्षपा स्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढा कदम्बानिलाः । सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधौ
रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते ।।390।। कारिका में प्रयुक्त आदि शब्द से अति परिचय इत्यादि को समझना चाहिए।
जैसे- वही मेरे कौमार्य का हरण करने वाले (प्रियतम पति अब भी) हैं और वे ही चैत्रमास की चाँदनी वाली रात्रियों हैं, वही विकसित मालती की सुगन्ध से पूर्ण और धूलिकदम्ब की कामोत्तेजक (उन्मादक) वायु (बह रही) है तथा मैं भी वह ही हूँ। (सभी वस्तुएँ पुरानी ही हैं
और दीर्घकाल तक उपमुक्त होने से उनके प्रति उत्सुकता होने का कोई अवसर नहीं है। फिर भी (आज) वहाँ नर्मदा के तट पर उस बेंत की लताओं से घिरे हुए वृक्ष के नीचे (जहाँ अनेक बार अपने प्रियतम के साथ सम्भोग कर चुकी हूँ) उसी कामक्रीडा के विलासों के लिए मेरा मन उत्कण्ठित हो रहा है।।390।।
अत्र कस्याश्चित् स्वैरिण्या गृहिणीत्वपरिचयेन पतिदशां प्राप्तेऽपि जारे उपेक्षापेक्षयोरभावकथनाद् मन्दः स्नेहः।
यहाँ किसी व्यभिचारिणी का प्रियतम के पतिदशा को प्राप्त होने पर भी गृहिणीत्व के परिचय से उपेक्षा और अपेक्षा-इन दोनों के अभाव का कथन होने से मन्द स्नेह है।